प्रेपी के पत्र


क्या ही बेहतर होता मैंने वह किताब ही नहीं खरीदी होती? गुनाह हुआ खरीदी और पढ़ी। किताब में डूब कर मर सा ही जाता मगर समझ कहीं कहीं साथ छोड़ देती थी। गुम हो जाता था उस स्वप्न संसार में और उसके स्वर्गाभास और नरक अनुभवों में जो लेखिका अपने प्रेपी को लिखे चली जा रही थी।

यह एक गहन लोक की लिखाई है, वह किताब जो प्रकाशित न हो सकी, कैसी होती, कितना होती, सब मेरे दिमाग में घूम रहा है, मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ, मगर समझ है कि उसमें कुछ उतरता जाता है। वह किताब जो लिखी गई, वह अनुवाद जो किया गया, वह जिस पर कानूनी हुकूक के सवाल दीवार बनकर खड़े हुए। और वह किताब जो मेरे हाथ न आ सकी, उफ़ यह भी हमारे साथ होना था।

मैं लगातार सोचता जा रहा हूँ, वह पत्र कैसे होंगे, उनमें क्या खुशबू होगी, क्या गमक उठती होगी जो लेखिका को लिखे गए थे।

एक दुराग्रह सा आग्रह कि पढ़ा जाए उन पत्रों को, किसी एक पत्र को ही सही, बस एक पत्र चल जाएगा। हाल तो यह था कि पूरा पत्र नहीं एक सिर्फ़ एक लफ़्ज़ ही पढ़ लूँ। अरे सिर्फ़ एक हर्फ़ भी चल जाएगा।

किताब पूरी हुई, मन नहीं भरा, दो बार तीन बार पढ़ना चाहता था। तभी एक पूरा पत्र पढ़ने के लिए मिल गया। लेखिका ने अपने को लिखे गए एक पत्र का अनुवाद मुझे भेजा। भले ही पूर्व प्रकाशित था, मगर मैं इस से वंचित था।

उफ़, यह भी नया जुल्म संगीन होना था मुझ पर। यह एक नया तिलिस्म रच गया। अब सही बताऊँ, किताब एक तरफ रखी है, तीन बार पढ़े जाने के उस वादे के पूरा होने का इंतजार करते हुए, जिसे मैंने हर घंटे इस किताब के कान में गुनगुनाया था। और अब मैं बेवफ़ा हो गया। अब वह दिन है और आज का दिन, छह बार पत्र पढ़ चुका हूँ।

दिल कहता है, उस दिन अगर तुम, नाक सुड़कते गुटटे और कंचे खेलते बालक न रहे होते तो यह पत्र तुम्हारे लिए ही लिखा हुआ होता। जिसे यह पत्र पहले पहल यह पत्र मिला होगा, अगर वह कवि न होती तो और क्या ही रही होती। मैं जलन के मारे मरा जा रहा हूँ। पत्र पढ़ा जा रहा हूँ।

रो रहा हूँ इस दुख से कि पत्र मुझे नहीं लिखा गया, रो रहा हूँ इस सुख से आखिरकार एक पत्र पढ़ सका हूँ मैं।

शुक्रिया तेजी ग्रोवर – आपका बहुत बहुत बहुत ज्यादा शुक्रिया।

शुक्रिया आशुतोष दुबे का जिनकी एक फेसबुक पोस्ट पर कुछ बड़बड़ाहट से शब्दों में उस पत्र को पढ़ पाने की इच्छा व्यक्त की और तेजी ग्रोवर तक बात जा पहुँचीं।

तेजी, आपकी किताब के साथ यह बेवफ़ाई खत्म कर सका तो दोबारा जरूर पढ़ूँगा, तिबारा पढ़ूँगा, किसी दिन जरूर बताऊंगा कैसी लगी। अभी तो एक जादू सा तारी है।

इत्ती सी मिठास


क़िस्से लौट-लौट कर आ रहे हैं। बहुत दिन हुए हम किस्सों से दूर होने लगे। क़िस्से जो गली-कूचों में घटित होते, और फिर-फिर सुनाए जाते। उन में कभी मिर्च मसाले पड़ते और चटकारे लेकर खूब उड़ाए जाते, तो कभी रूमानियत के साथ पाग दिए जाते और चाय पानी के साथ मिठास की तरह परोसे जाते।

पता नहीं विश्व विद्यालयों के शास्त्र में क़िस्से, कहानियों, मिसालों, लघुकथाओं, उपन्यासों के लिए तय वर्गीकरण का क्या चकल्लस चल रहा है मगर इन सब की किताबों के पृष्ठ भाग पर फिक्शन चिपका हुआ है – माने की कहानी संग्रह। मेरी राय में तो पूर्ति खरे क़िस्से पागतीं हैं और परोस देतीं हैं। नहीं, पागी तो जलेबी – इमारती भी जाती है –  मगर उनके किस्सों में शकरपारों का स्वाद है – कभी चीनी -पगे तो कभी गुड़-पगे। कुछ क़िस्से तो बस खुरमे की तरह आपके मन में घुल जाते हैं।

उनके यहाँ न शैली का शोर है न द्वंद की कुश्ती – बस एक एक कर किस्सा आता है घुलता है और एक स्वाद छोड़ देता है – आप चाहें तो उस एक क़िस्से को कुलबुलाते रहें या फिर अगले को उठा लें। बात जो मन तक उतर जानी चाहिए – वह उतर जाती है। वह कोई बड़ा विमर्श नहीं खड़ा करतीं – किसी वाद का झण्डा नहीं है। उनके पास सरलमना पुरुष हैं – सहजमना स्त्रियाँ और मुस्कराते बच्चे। सब आम ज़िंदगी से आते हैं – हमारे अपने मझोले शहर के पुराने मोहल्लों से टहलते हुए। पास पड़ोस तो इतना है कि आप अपने बारहवें माले के फ्लेट से निकालकर यूँ ही टहलने लग सकते हैं।

इस सब को कहते हुए उन्हें कोई झिझक नहीं है, कोई हीन भावना नहीं है – क्रांति-आंदोलन थोड़े ही करनी है – जीना है – हँसना-मुसकराना है और सही समझ के साथ आगे बढ़ जाना है। उनकी स्त्री किसी मन चले को अगर झापड़ भी मारती है तो उसकी आवाज छेड़खानी करने वाले के गाल पर नहीं मन में होती है। उनकी स्त्री कराटे सीख कर मार्शल नहीं बनती – आत्मविश्वासी होती है। उनके पुरुष प्रेमिका का मन रखने के लिए विवाह को कुछ यूं ही दिन आगे बढ़ा देते हैं। उनकी नवयुवती नौकरी पर जाते समझ हो आत्मश्लाघा में हल्ला नहीं करती – जिम्मेदार बनती है। उनके पिता पराँठे बनाते हुए मेरी तरह चुपचाप पत्नी बच्चों के सामने परस देते हैं – कोई अहसान नहीं करते। उनका लेखन पितृसत्ता को चुनौती नहीं देता -उसे धीरे धीरे सुधारने की राह पर चलता है।

बस इतना सा ही तो है उनका इत्ती से बात – कहानी संग्रह – वेरा प्रकाशन, जयपुर से इसी साल आया है – मूल्य वही है 249/-। चलते फिरते मेट्रो में या किसी क्लीनिक पर अपनी बारी का इंतजार करते हुए पढ़ सकते हैं – बिना रक्तचाप बढ्ने – गिरने की चिंता किए।

वन्या – मनीषा कुलश्रेष्ठ


उस दिन मैं भी देर तक जागा रहा था। मुझे भी महुआ के लाल खूनी आँसू दिख रहे थे। मैंने सोने जाने से पहले मनीषा कुलश्रेष्ठ कि कहानी “एक थी लीलण” आधी पढ़ ली थी। कहानी के एक वाक्य, “जहाँ मेरे नाखूनों से छाल छिली थी महुए के पेड़ की वहाँ से आँसू बहा रहा था।” इस वाक्य तक मुझे पढ़ते रहने के लिए हिम्मत करनी पड़ी थी।

मैंने जैसे तैसे अगले दिन यह कहानी पूरी कर ली। नहीं, शायद एक दो वाक्य रह गए थे। अगले दिन पढ़ा अंतिम वाक्य कुछ इस तरह था, “लाश का अपमान नहीं करना चाहिए।”

यदि किसी संग्रह की कोई एक कहानी भी पाठक अंतर में कोई सोया हुआ मानवीय भाव जागा दे तो वह अपने मकसद में सफल कहा जाएगा। लीलण, न जाने कितनी लीलण, हमारी असभ्य पुरुष सत्ता की भेंट चढ़ती हैं। यह कहते हुए मैं इस बात की आशंका को सामने रखता हूँ कि संवेदना और समझ की कमी में स्त्रीसत्ता और पुरुष सत्ता दोनों खराब हो सकती है। जिस समाज में मृत पुत्र का अस्तित्व और सम्मान मुआवजे की रकम से अधिक न रह जाता हो, वहाँ किसी लीलण को कौन पूछता है। हमारे पुरुषों और परिवारों को पत्नी, प्रेयसी, बहन और बेटी के तौर पर हजारों लीलण मिल जाएंगी, कुछ मर खप जायें तो किसे फर्क पड़ता है। कम से कम होश वालों को तो नहीं। होश वालों को सौदा करना आता है। जो बेहोश हैं उनकी अपनी समस्या है – वह दरिंदे हैं या दिलदार। इस कहानी में जो अकेला इंसान खड़ा है वह बेहोश नहीं है तो तकनीकि रूप से होशमंद भी तो नहीं है।

इस कहानी संग्रह में नौ पठनीय कहानियाँ हैं।

“ऑर्किड” कहानी को हम आदिवासी स्त्री संघर्ष के साथ भारत और उसके “अभिन्न अंगों” के बीच के संघर्ष के बारे में बात करती है। इस कहानी में आप ज़मीनी समाज और केन्द्रीय सत्ता के संघर्ष को देख पाते हैं। यह कहानी आपसी संवाद, समझ और विश्वास की कमी को रेखांकित करती है। वास्तव में यह कहानी भारत के किसी भी भाग कि की हो सकती है। यहाँ मणिपुर की बात हो रही है। एक कहानी के एक पात्र का कथन, “डेवलपमेंट जो है न इंडियन गवर्नमेंट का, वह ईस्टर्न यूपी के बाद खत्म हो जाता है।“ अपनी सच्चाई के अधिक अलग नहीं है। यह सच्चाई ही वास्तव में देश भर में फैले बहुत से संघर्षों का आधार है जिनमें से कई हिंसक हो गए हैं।

अगर मैं कहानी में होता होता तो, इस पात्र को टोकता और कहता, “डेवलपमेंट जो है न इंडियन गवर्नमेंट का, जेवर से आगे उसकी हड्डी ही बचती है जिसे कुछेक बड़े शहर चुभलाते रहते हैं”। खैर कहानी अपने मूल में कहीं अधिक गंभीर मुद्दे पर बात कर रही है। इस कहानी को पढ़कर समझा जाना चाहिए।

पहली कहानी “नर्सरी” का शिल्प मुझे प्यारा लगा। यह एक गेंद के चाय बागान और उसके आसपास भटकने के बहाने बागान के जीवन के भटकावों से हमारा परिचय कराती है। इस प्रकार यह कहानी तथाकथित भोगे हुए यथार्थ का कोई दावा नहीं पेश करती। दूसरी कहानी “नीला घर” अरुणाचल के एक आदिवासी से सुनी गई कहानी है, जो वहाँ के जीवन के बारे में एक झरोखा खोल देती है। “ज़मीन” राजस्थानी आदिवासी लड़की के पारिवारिक संघर्ष की कथा है तो “एक थी लीलण” यौन अपराध की शिकार आदिवासी लड़की की मृत-देह के मार्फत अपनी कथा कहती है। यह दोनों कहानियाँ कुछ कमीवेशी के साथ किसी भी नागर लड़की की कहानी हो सकती थीं। हमारा समाज जड़-जोरू-ज़मीन के मामले में आज भी आदिम ही है वह सभ्यता के मोड़ पर आदिम से आदिवासी की यात्रा भी पूरी नहीं कर सका है।

“कुरंजा” कहानी विशेष है क्योंकि यह किसी आदिवासी या ग्रामीण लड़की की कहानी ही हो सकती थी। यह किसी अन्य समाज की स्त्री के लिए भोगा नहीं पर समझने योग्य यथार्थ है। वहीं “अवशेष” आदिवासी लड़कियों के साथ हमारे “असभ्य” समाज के व्यवहार का चित्रण है। संग्रह की अंतिम कहानी, “रक्स की घाटी और शब-ए-फ़ितना” न सिर्फ स्त्री वरन अपने पूरे समाज के दुःख की कहानी है।