यथार्थवादी चित्रण – “सिर्फ एक बंदा काफी है”


मई 2023 भारतीय व्यावसायिक सिनेमा को दो महत्वपूर्ण फ़िल्में देने के लिए याद किया जाएगा। “कटहल” और “सिर्फ एक बंदा काफी है” बॉक्स-ऑफिस के आंकड़ों के इतर सफल हिन्दी फिल्मों के तौर पर याद की जाएंगी।

जब आप किसी कानूनी करिश्मे पर काम कर रहे हों तो आप पर कानून की सही ओर बने रहने का दबाब होता है। आप नहीं चाहते कि ऐसा कुछ कहा या किया जाए जिस आप मानहानि या अदालत की अवमानना का सामना करना पड़े। बात-बात में भावना आहत कर लेने वाले वर्तमान संदर्भों में फिल्म की कथावस्तु यथार्थ चित्रण की मांग करती है।

यह कटु यथार्थवाद की फ़िल्म है और उस उद्देश्य में निर्विवाद रूप से सफल रही है। यथार्थवादी चित्रण के बाद फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष उसके प्रमुख अभिनेताओं का मँझा हुआ अभिनय है। अधिकतर अभिनेता कठिन स्थितियों में संयत रहकर भाव-विन्यास प्रदर्शित कर सके हैं। कम बोलकर अधिक समझने-समझाने पर ज़ोर दिया गया है।

अभिनय संवादों पर भारी पड़ता रहा है। फ़िल्म में सार्वजनिक सूचना की सीमा में कथानक और संवाद को बनाकर रखने का दुःसाध्य प्रयास हुआ है। स्वभावतः संवादों में कल्पना का नमक कम है। कानूनी और अदालती संवाद में उपलब्ध सूचना को आपस में जोड़ने मात्र से रचनात्मकता नहीं न्यूनतम आवश्यक श्रम किया गया है। यह बात सराहनीय और यदा कदा असहनीय हो जाती है। किसी भी फालतू शब्द को खर्च न कर-कर फिल्म अपने मूल आधार और गति पर कायम रहती है।

अपने नाम के अनुरूप इस फ़िल्म में मनोज बाजपेयी पूरी तरह छाए हुए हैं। सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ शब्दहीन दृश्यों में बेहद मुखर अभिनय करने में सफल रहे हैं। है। मां बाप की भूमिका में जयहिंद कुमार और दुर्गा द्वंद दिखाने में कामयाब रहे, परंतु उनसे अधिक बेहतर काम लिया जा सकता था। विपरीत परिस्थिति के बावजूद विपिन कुमार शर्मा प्रभाव छोड़ पाए हैं।

परंतु संवाद और सूचना की कमी के चलते वरिष्ठ अधिवक्ताओं की भूमिका में आते जाते अभिनेता प्रभाव डालने में सफल नहीं हो सके। जबकि यथार्थ में उनकी भूमिकाएँ केन्द्रीय होती हैं। क्योंकि फ़िल्म अधिवक्ता के दृष्टिकोण से बनाई गई जय, यह बात कहना महत्वपूर्ण है।

वास्तविक जीवन में वरिष्ठ वकील किसी मुकदमे में तथ्य या कानून की गलत ओर पाए जाते हैं तो उनका हावभाव अतिक्षुब्ध या कुटिल दिखाई देता है। अदालत के कमरे से बाहर आने तक उनका चेहरा सपाट नहीं होता और उसके बाद वह निर्लिप्त हो जाते हैं। फ़िल्म में केवल दो अधिवक्ता ही अपने मुकदमे में दिलोजानोदिमाग़ से लगे हैं, बाकी लगता है, चुपचाप नोट छाप कर चले गए। लगभग हारे हुये मामलों में ऐसा होता भी है, परंतु वास्तविक घटनाक्रम पर ध्यान दें तो इसकी संभावना कम लगती है। फिल्म में इन वरिष्ठ अधिवक्ताओं को अपनी जिरह का थोड़ा और मौका मिलता, तो अभियोजिका के वकील साहब भी अधिक निखरते।

वरिष्ठ वकीलों के बेहद महंगे चमकीले काले कोट, गाउन और कनिष्ठ अधिवक्ताओं की भीड़ गायब हैं। उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के अंदरूनी कमरों की कल्पना यथार्थ से मेल नहीं खाती। फिल्म अपने यथार्थवादी चित्रण, अभिनय और बजट के लिए जानी जाएगी। जहाँ कुछ भी फालतू खर्च नहीं किया गया है। पार्श्व संगीत का एक सुर भी नहीं। कसे हुए निर्देशन के लिए अपूर्व सिंह कर्की को बधाई देना बनता है। कुल मिलाकर फिल्म का निर्देशन, अभिनय, लेखन, स्क्रीनप्ले, एडिटिंग बेहतर कहा जाएगा।

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चाय और रसम


न काले बाल,

न माथे के बल,

न बालों की लटें,

न कुर्ते की सलवटें,

मेरी उँगलियों के पोर

सुलझाना चाहते हैं

बस

तुम्हारी थकान

हर दिन।

मुझे शिकायत

है तुम से

तुम चाय नहीं पीतीं,

चाय, पेय नहीं 

दो पल

हवा से हल्के 

तुम नहीं जीतीं,

बाबजूद इसके कि मधुमेह है तुम्हें,

मुझे शिकायत

है तुम से।

मुझे दो माँ याद आती हैं

जब तुम कहती हो

आज बना दो अरहर की दाल।

एक जिसने नहीं सिखाई तुम्हें

अपने जैसी दाल बनाना।

एक जिसने सिखाई मुझे

अपने जैसी दाल बनाना।

माएँ

कुछ साज़िश करतीं हैं

या तुम?

मैं नहीं खेना चाहता

जीवन की नाव या कार

बराबर बैठ कर तुम्हारे

मैं रास्ते देखता हूँ

थोड़ा जलता हूँ

जब रास्ते तुम्हें देख

खिलखिलाते है। 

याद है

उस दिन

तुमने छोड़ दी थी पतवार

डगमगाती डोंगी में

कितना थका था मैं 

भँवर सा डोलते

तब तक जब तुम ने कहा 

संभालो इसे ठीक से

झील मुस्करा दी थी। 

जब तुम होती हो मेरे पीछे

आँखें देखतीं है तुम्हें

मेरे आगे

रास्ता उलीचते

काँटे हटाते

गलीचा बिछाते।

मामू-भांजा चौक पर

हल्के फुल्के गोलगप्पे 

सस्ते नहीं

अनमोल होते हैं

खाएं हम तुम 

एक साथ अगर।

नहीं पीना चाहता,

चाय, कॉफी, सुरा, शर्बत,

जब तक तुम साथ न हो

गुनगुने पानी में भी वरना 

धूप होती है

आओ आज शाम रसम पीते हैं। 

ऐश्वर्य मोहन गहराना

पका, पकाया और पक्का खाना


उत्तर भारतीय हिन्दू उत्सवों में हरियाली तीज वर्ष पहला त्योहार है जब पक्का खाना बनता है और इसके बाद दिवाली तक यह सिलसिला चलता है|
जिन्हें ज्ञात नहीं वह अक्सर पूछते हैं, शेष समय क्या हम कच्चा खाना खाते हैं? वास्तव में प्रश्न दो अलग अलग शब्द युग्म के कारण पैदा होता है| कच्चा व पका खाना और कच्चा व पक्का खाना| एक और शब्द युग्म कठिनाई उत्पन्न करता है कच्चा और पका फल वाला| 

वास्तव में आम बोलचाल में शब्दों के गडमड होने से यह कठिनाई आने लगी है| यदि विचार किया जाये तो भोजन को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है:
(1) कच्चा खाना: कन्द मूल फल शाक आदि, इसमें से फलों के दो उप विभाजन हैं:
(अ)  कच्चे फल – पपीता, लौकी, आदि, जिन्हें प्रायः सब्ज़ी के रूप में पकाकर या फिर नीबू, आम, अमरूद,बेर, सलाद में खाते हैं|
(आ) पके फल जिन्हें हम मूलतः फल के रूप में खाते हैं या टमाटर आदि कुछ पके फल सब्जी के रूप में खाये जाते हैं| 

(2) पकाया खाना (आम बोलचाल में यह भी पका खाना हो जाता है, यह गलत भी नहीं है): वह सब्ज़ी (कन्द मूल फल शाक आदि), अन्न, दूध के पदार्थ, माँस मछली जिन्हें रसोई में पकाया जाता है| मूल मान्यता यह है कि रसोई में बिना पकाए इन्हें खाना व्यवहारिक या स्वाद कारणों से संभव या उचित नहीं है|

यह पकाया हुया यानि पका खाना दो प्रकार का है:
(क) कच्ची रसोई का खाना या कच्चा खाना: उबला, भुना, भाप पर पकाया खाना| इस प्रकार के खाने को हल्का खाना और काफ़ी हल्का खाना कहकर भी संबोधित किया जाता है| उचित भी है कि जितना कम घी तेल उतना हल्का खाना| हल्के खाने के रूप में इस खाने को लोकप्रियता मिलने का कारण है बढ़ती महंगाई और कमजोर पाचन क्षमता| कम व्यायाम, कम शारीरिक श्रम के कारण पाचन क्षमता कमजोर होती है|
(ख) पक्की रसोई का खाना या पक्का खाना: भली प्रकार तला हुआ खाना| यह गरिष्ठ खाना कहलाता है और कमजोर मैदे यानि कम पाचन क्षमता वाले इसे नहीं पचा पाते| 


मूलतः भारतीय परंपरा में दो तरह की रसोई मानी गई है कच्ची रसोई और पक्की रसोई।

कच्ची रसोई का अर्थ है वह स्थान जहाँ खाने को उबाल, भून, या भाप पर पका कर खाते हैं| हमारा अधिकतर भोजन कच्ची रसोई का भोजन है| इसमें समय, ऊर्जा, धन, आदि कम लगते हैं| इसमें मूल बात है वसा यानि घी तेल का कम प्रयोग| रोटी, बाटी, लिट्टी, इडली, डोसा, तथा ऐसे सब्जियाँ जिनमें सब्ज़ियों को तेल घी में कम तला गया हो| खिचड़ी, बिरयानी, पुलाव, खीर, तमाम रसीली सब्ज़ियाँ इसी श्रेणी में आती हैं|
कच्ची रसोई की खास बात है इसका मूलतः कोई स्थापित मानक नहीं है| आप अपने समय और स्वाद के अनुसार पकाने के समय और गति को कम या अधिक कर सकते हैं| आप कम/ अधिक सिकी रोटी, कम या अधिक गले चावल, तीव्र गति में पके तहरी और धीमी गति में पकी बिरयानी,खा सकते हैं| खीर उबलने के बाद कितनी भी देर पका सकते हैं| यह सब पसंद पर निर्भर करता है| आप इसमें बहुत से प्रयोग कर सकते हैं| यह पाक कला का बेहद विस्तृत संसार है| यहाँ पर स्थापित हुए मापदंड वैज्ञानिक नहीं कलात्मक हैं| 

इसके विपरीत पक्का खाना या पक्की रसोई का खाना वह है जिसे तला गया हो जैसे पूड़ी, कचौड़ी या अरबी, कद्दू, बैगन जैसी सब्जियाँ जिन्हें बढ़िया घी तेल में छोंका पकाया गया हो| यहाँ कला विज्ञान के काफी बाद आती है| आप कम गर्म या अधिक गर्म घी में पूड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, नहीं तल सकते| यह खाना इसलिए पक्का है क्योंकि हर कोई जानता है कि खाना कम से कम किस तापमान पर और कम से कम कितने समय पकाया गया है| कोई भी कमी किसी नौसिखिए को भी स्पष्ट दिखाई दे जाती है| 

फिर भी भोजन पकाना कला है और यहाँ भी कला के लिए व्यापक अवसर हैं| इसलिए पक्के खाने में सब्जियों, खीर, और अचारों को  शामिल करने को लेकर स्थानीय पाक विधियाँ और मान्यता महत्वपूर्ण हैं| सब कुछ पाकविधि पर निर्भर करता है| जिस प्रकार के भोजन पर शंका हो उसे कच्ची रसोई का खाना ही जाने|

कच्ची रसोई का भोजन कितनी देर बाद खराब होगा या अपना सर्वश्रेष्ठ  स्वाद अथवा सर्वश्रेष्ठ पोषण खो देगा, यह अनुमान इसे पकाने वाले को भले हो मगर खाने वाला इस बाबत कुछ नहीं कह सकता| अनुभव से स्वाद पारंगत लोग इस बारे में अनुमान लगा सकते हैं| इस प्रकार का भोजन लंबे समय तक शंका पैदा करता रहा कि कहीं यह भोजन संक्रमित न हो| या जल्दी ही संक्रमित न हो जाये| 

इसी कारण समझदार लोग घर के बाहर यात्रा आदि पर अपना खुद का दीर्घ अवधि भोजन के जाने लगे या बाहर का पक्का खाना खाने लगे| आम दावतों में भी पक्का खाना बनवाने का प्रावधान इसी कारण है कि बनवाने, बनाने और खाने वाला सभी इस भोजन की सुरक्षा के प्रति संतुष्ट रहता है| भारत के पारंपरिक भोजन व्यवसायी पक्के भोजन का ही व्यवसाय करते रहे हैं – पूड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी आदि| भारत जैसे गर्म देश में जहाँ भोजन जल्दी खराब हो सकता है, पक्का खाना आपके स्वस्थ्य के लिए उचित है बशर्ते आप इसे सीमित मात्र में खाएं और अपना पाचन तंत्र ठीक रखें| यह एसिडिटि आदि कर सकता है पर प्रायः जहरीला नहीं होगा| 

आजकल यात्रा, दावतों और सार्वजनिक व व्यवसायिक भोजनालयों में कच्ची रसोई सजती है| इन सब जगह बचकर खराब होने वाला अधिकतर खाना कच्ची रसोई का खाना है| यह विषाक्त होकर बीमारी पैदा करता है| वैसे, खराब मौसम या यात्रा में जब खाना जल्दी खराब होता हो कच्चा न खाने की सलाह हर वर्ग के लिए है।

तला हुआ खाना क्योंकि तेल का तेल, नमक चीनी के अतिरिक्त संरक्षण (preservation) के साथ होता है तो त्योहार, खराब मौसम, लंबी यात्रा के लिए उचित है। यदि हम बैठे रहते है तो पक्का नहीं पचता, पर वास्तव में यह अधिक संरक्षित है। 

बरसात में जब जल जन्य संक्रामण की संभावना अधिक हो तो पक्की रसोई को प्राथमिकता मिलती है| चौमासे में ब्रह्मचारी क्या संन्यासी तक के लिए पक्की रसोई की अनुमति है।

हरियाली तीज से शुरू कर हम बिना विचारे ही व्यवस्था/रिहर्सल करेंगे कि जलसंक्रमण वाली महामारियों के समय पक्की रसोई की व्यवस्था हमारे पास है। हम दिवाली तक यह बार बार करेंगे जब तक मौसम कंद मूल फल और कच्ची रसोई के लिए पूरी तरह अनुकूल न हो जाए। जाड़े में तो आप कच्चा पक्का कुछ भी सरलता से खा सकते हैं| 

गर्म मौसम में, यानि चैत्र के बाद आप फिर से कच्ची रसोई सजाएँ, बासा खाने से बचें और बाहर कम से कम खाएं} 

अंत में एक सलाह, जब भी बाहर खाएं, महंगे भोजन के स्थान पर बारंबारता पर ध्यान दें: उस स्थान को चुनें जहाँ बहुत तेजी से खाना बने और खत्म हो जाएँ और पुनः यह चक्र चलने लगे|