भौतिक विश्व का एक दिन


सतयुग में सभी श्रेष्ठजन भौतिकता से दूर रहते थे, ब्रह्मलोक में विचरण करते थे| उनके मन, मस्तिष्क, आचार, विचार एवम् चरण, रथ और भवन भूमि से दो अंगुल ऊपर रहते थे| श्रेष्ठजन आममानव की भौतिक पथरीली दुनिया पर कभी कभी उतरते थे… किसी बहुत भाग्यशाली, या किसी बहुत दुर्भाग्यशाली दिन|

कलियुग में सभी श्रेष्ठजन भौतिकता से दूर रहते हैं, साइबरलोक में विचरण करते हैं| उनके मन, मस्तिष्क, आचार, विचार एवम् चरण, रथ और भवन भूमि से दो अंगुल ऊपर रहते हैं| श्रेष्ठजन आम मानव की भौतिक पथरीली दुनिया पर कभी कभी उतरते हैं… किसी बहुत भाग्यशाली, या किसी बहुत दुर्भाग्यशाली दिन|

बचपन में नानाजी कहानी सुनते थे जिसमें राक्षस मरता नहीं था क्योंकि उसकी जान एक तोते में थी| आज हम मानव शायद नहीं मरेंगे क्योंकि हमारी जान मोबाइल में है| सुबह सुबह उठते मोबाइल देखना हमारी आदत में है| मगर वो एक भिन्न दिन था| जनवरी के आखिरी इतवार की खुशनुमा सुबह, “ईश्वरीय पुकार” इतनी तेज थी कि मोबाइल देखने का समय न था और न ही साथ मोबाइल ले जाने का| सुबह सुबह “आसन” पर बैठे हुए अन्य दिन के मुकाबले अधिक सुकून महसूस हुआ| मन एक पुराना गाना अपने आप गुनगुनाने लगा| सोचा; आज टहलने जाते समय मोबाइल को साथ न ले जाया जाए| जब पत्नी ने टोका तो मोबाइल का डाटा ऑफ कर कर मोबाइल को जेब की गहरे में उतार दिया| एक विचार जिसने दिन बदल दिया|

दुनिया गजब की ख़ूबसूरत है; उसे मोबाइल कैमरे की निगाह के बिना भी देखा जा सकता है – केवल अपने लिए| सड़क के गड्ढे अपनी अलग कहानी कहते हैं, जो मोबाइल देखते हुए नहीं सुनी जा सकती| यह सब उस दिन टहलते समय आने वाले विचार हैं| बहुत दिनों बाद, मैंने कोई सेल्फी नहीं खींची; न तो साथ मोबाइल था – न ही किसी स्टेटस अपडेट की इच्छा|

घर लौटकर अपने बेटे से बात की; उसने मुझे एक शानदार कहानी सुनाई – एक कार्टून कहानी| उसने मुझे बताया की जब आप छोटे हो जाओगे तो आपको भी कार्टून पसन्द आने लगेंगे और आप वो टीवी पर लड़ाई – झगड़ा देखना बंद कर दोगे| सुबह टहलने से सो मन की प्रसन्नता था वो अब चेहरे पर मुस्कान बन कर उतर आई|

पत्नी के लिए चाय बनांते समय खोती चाय के बदलते रंग मैं मुझे रंग बदलती दुनिया की रंगत दिखी| पत्नी ने पूछा, क्या बात है आज ख़ुश लग रहे हो – मैंने कहा हाँ, मोबाइल से दूर हूँ और टहलने जाते से पहले मोबाइल का डाटा और वाई – फाई बंद कर दिया है| उनके चेहरे पर हल्की  सी चिंता की रेखाएं नुमाया हुईं मगर तुरंत ही बोलीं, चलो कम से कम एक दिन तो घर में रहकर घर में रहोगे| मैं अभी उन्हें असमंजस भरी सवालिया निगाह से देख ही रहा था कि उन्होंने आगे बढ़कर बोसा ले लिया|

मगर वो इतवार भी क्या इतबार जिसमें किसी क्लाइंट या बॉस का फ़ोन न आये| बॉस ने बताया कि उन्होंने एक मेल भेजा है, और उसका इन्टीमेशन व्हाट्सएप भी किया है| मुझे पता है, यह हमारा रूटीन संवाद है| यह संवाद हम दोनों को यह संतोष देता है कि अपने लक्ष्य के लिए दिनरात हफ्ते के सातों दिन चौबीसों घंटे अपने काम के लिए जान तक लड़ा देते हैं|

आज दुनिया में रोज की तरह बहुत कुछ हुआ, लोगों के स्टेटस फेसबुक से क्या से क्या हो गए, ट्विटर पर कुछ अजब सा गजब दिनभर ट्रेंड करता रहा; मेल-बॉक्स में जरूरी समझे जाने वाले बेकार के सन्देश आते रहे; मगर बालकोनी की गुनगुनी धूप में आज कुछ अलग बात महसूस हुई| बहुत दिनों बाद खानें में धनियापत्ती का जायका खुलकर आया|

मैंने पत्नी से कहा; “चलो, एक मिठुआ पान खा कर आते हैं| चलो चार कदम राजीव चौक तक पैदल जाते हैं|” बहुत दिन बाद किसी से अगले मोड़ दो मोड़ मुड़ने तक का रास्ता पूछा| रास्ते भर हम एक दुसरे को पुराने चुटकुले सुना कर हंसाते रहे| बहुत दिन बाद, हमने एक दुसरे को मोबाइल पर कोई जोक शेयर नहीं किया था| घर लौटकर हमने एक साथ एक फिल्म देखी|

शाम को अपनी भूली – बिसरी पुरानी डायरी में लिखा:

जिन्दगी में एक गुनगुनी धुप, शीतल पवन, खुशबूदार फूल सब हैं| मगर हम गुलाम हैं अपनी तरक्की के| आज मैंने एक आजाद जिन्दगी जी है| आज जिन्दगी का डाटा ऑन था|

This post is a part of Write Over the Weekend, an initiative for Indian Bloggers by BlogAdda.

कृपया, अपने बहुमूल्य विचार यहाँ अवश्य लिखें...

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.