भले ही यह किताब २०१३ में प्रकाशित हुई मगर मैंने इसी साल पुस्तक मेले में इसे खरीदा|
कथानक अंत से लगभग कुछ पहले तक गठीला है मगर अचानक “कहानी ख़त्म होने के बाद” जैसा कुछ आ जाता है और पाठक के हाथ इस कहानी के दुसरे भाग “गेनर कहीं का” (जो अलिखित होने के कारण अप्रकाशित है) के कुछ अंतिम पन्ने हाथ आ जाते हैं| अगर आप इस कहानी को पढ़े तो अंतिम तो पृष्ठ फाड़ कर फैंक दें और दो चार महीने के बाद किसी पुस्तकालय से मांग कर पढ़ लें| इन दो पृष्ठों के साथ इस किताब की कीमत १२५ रुपये कुछ ज्यादा है और इनके बगैर कम|
यह पैक्स की कहानी है जो “साला” बिहारी है और पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में मगध एक्सप्रेस टाइप किसी ट्रेन से जीवन भर की पढाई करने दिल्ली आया है| जिसके पास “जाओ जीत लो दुनिया का” आदेश है| विद्यार्थ पलायन की भारतीय विडंबना इस कथा का विषय न होकर भी एक गंभीर प्रश्न की तरह प्रस्तुत है| दुनिया जीतने का लक्ष्य हमेशा ब्याह के बाजार में उतरने तक हासिल करना होता है जो कथानायक और अन्य पात्रों का सबसे बड़ा दबाव है|
अगर आपने दिल्ली में यूपी – बिहार बनाम हरियाणवी – पंजाबी द्वन्द अपने छात्र जीवन में महसूस किया है तो आप इस पुस्तक से जुड़ा महसूस करेंगे| कुछ स्थानों पर दो – तीन बार की लिखत महसूस होती है| गंभीर पाठकों को पुस्तक में बिहारी पुट के ऊपर चढ़ाया गया बीबीसी हिंदी तड़का भी कुछ जगह महसूस हो सकता है, यह पंकज दुबे के लिए दुविधा और चुनौती है| दरअसल पुस्तक को आम हिंदी पाठक के लिए सम्पादित किया गया है जिससे भाषाई प्रमाणिकता में कमी आती है और महानगरीय पठनीयता में शायद वृद्धि होती है| पुस्तक को दोबारा पढ़ते समय, आपको चेतन भगत का बाजारवादी तड़का महसूस होने लगता है|
भले ही पुस्तक के पीछे इसे हास्य कथा कहा गया हो, मगर यह साधारण शैली में लिखा गया सामाजिक व्यंग है जो समकालीन दिल्ली पर हलके तीखे कटाक्ष करता है और अगर आपको वर्तमान दिल्ली का मानस समझना है तो इसे पढ़ा जाना चाहिए| इसके साधारण से कथानक की गंभीर समाजशास्त्रिय विवेचना की पूरी संभावनाएं है, यद्यपि साहित्यिक चश्मे से यह किताब कुछ गंभीर विवेचन नहीं देती|
अगर आप खुद को साधारण हिंदी साहित्य से जोड़ते है तो इसे जरूर पढ़ें|