घर मजदूरी


अभी पिछले दिनों खबर पढ़ी कि एक चाय की दूकान पर काम करने वाले ग्यारह साल के बाल मजदूर को चाय पीने आये दो ग्राहकों ने ठीक से आर्डर न ले पाने करण गोली मार दी|

मुझे अपने बचपन की कुछ बातें याद आ गयीं| उन दिनों हम सिकंदराराऊ के नौरंगाबाद पश्चिमी मोहल्ले में रहते थे| पड़ोस में एक परिवार उन्हीं दिनों रहने आया जिसमे चार पांच छोटी छोटी लड़कियां और साल भर का एक लड़का था| जाड़ों के दिन थे| बच्चों की माताजी सुबह धूप निकलते ही छत पर आ जातीं थीं और दिन ढलने तक वही रहती थीं|

पुरे मोहल्ले में उस जल्लाद माँ का जिक्र होने लगा| दस और बारह साल की दोनों बड़ी लड़कियां बारी से खाना बनती थी| तीसरी आठ लड़की अपने छोटी बहन और भाई को नहलाती धुलाती थी| उसकी छोटी बहन रोज जब भी उसकी माँ का मन होता, पिटती रहती थी| साल भर का राजकुंवर दिन भर माँ की गोद से चिपका रहता था| हमें लगता की ये उन लड़कियों की सौतेली माँ है|

एक दिन, माँ ने उनके घर जाने का निर्णय लिया| उस औरत के पिता जिलाधिकारी कार्यालय में काम करते थे| उसे हाई स्कूल के बाद पढाई बंद करनी पड़ी थी और उसे घर के काम में लगा दिया गया था|

उसके अनुसार पंद्रह साल की उम्र से काम करते करते थक गयी थी और फिर ये “नाश-पीटियाँ” आ गयीं| सारा शरीर बिगाड़ कर रख दिया इन्होने| अब काम करना सीखेगी तो इनका ही तो भला होगा| मुझे क्या, दिनभर इनके बारे में सोच सोच कर ही परेशान रहती हूँ|

ऐसे कितने बच्चे हैं जो अपने घर में अपने ही माँ बाप के शोषण का शिकार होते हैं| लड़कियों को घर का काम करना होता है| लड़कों को ज्यादा लाड प्यार तो शायद मिलता है मगर वो भी अछूते नहीं है अपने घर में काम काज से| बाजार हाट, उठा-धराई|

मगर कब तक?

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आलू बीनता बचपन


दिनांक: 1 मार्च 2013

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कार्य विवरण:

कार्य: खेत में से आलू बीनना

कार्य अवधि: रोज 12 से 15 घंटा, (महीना – दो महीना सालाना)

आयु: 9 वर्ष से १२ वर्ष

लिंग: पुरुष (अथवा महिला)

आय: कुल जमा रु. 60/- दैनिक

वेतन वर्गीकरण: रु. 50/- माता – पिता को, रु. 10 अन्य देय के रूप मे कर्मचारी को

पता: जलेसर जिला एटा, उ. प्र.

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कर्मचारी विवरण

नाम: अज्ञात

शिक्षा: कक्षा 2 से 5 (हिंदी माध्यम)

ज्ञान: मात्र वर्ण माला, गिनती,

भोजन: रूखी रोटी, तम्बाकू गुटखा, पानी, (और बेहद कभी कभी दारु, आयु अनुसार)

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मैंने यह स्वयं ऊपर दी गयी दिनांक को स्वयं देखा| जलेसर से सिकंदरा-राऊ के बीच कई खेतो में आलू बीनने का काम महिला और बच्चे कर रहे थे, पुरुष बोझ धो रहे थे| खेत मजदूरों के लिए तो चलिए ये सपरिवार बोनस कमाने के दिन हैं, मगर दुःख की बात थी कि कुछ अन्य लोग भी अपने बच्चों से काम करने में गुरेज नहीं करते|

किस घर में बच्चे माँ – बाप का हाथ नहीं बंटाते हैं?

क्या बच्चे से एक वक़्त पंसारी की दुकान से सामान मांगना बाल मजदूरी नहीं है?

क्या बच्चे काम करने से नहीं सीखते? अगर नहीं तो स्कूलों में लेब किसलिए होतीं हैं?

क्या फर्क पड़ता है कि बच्चे जिन्दगी की पाठशाला में कमाई का कुछ पाठ पढ़े, कुछ बोझ उठाना सींखे?

क्या बुराई है अगर बच्चे साल भर की अपनी किताबों, पठाई लिखाई का खर्चा खुद निकाल लें?

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