मकान का घर होना


अभी पिछले दिनों ही मैंने “ज़मीन का मकान होना” लिखा था और उसकी इन पंक्तियों को काफी सरहा गया:

मकान कोई पत्थर नहीं होते, कविता होते है जो कहानी कहते हैं| हमारा और आपका मकान बनाया नहीं गया, मूर्ति की तरह गढ़ा गया है| भूमि पूजन से लेकर गृहप्रवेश तक मकान का बनना एक चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया है|

प्यार और देखभाल से मकान कब घर बन जाता है आपको पता भी नहीं चलता| आप कब जमीं को मकान और मकान को घर कहना शुरू करते हैं, इसका कोई तरीका नहीं है|

मकान को घर दीवारें, छत, खिड़कियाँ और दरवाजें नहीं बनाते| और कई बार तो केवल हमारा मकान ही हमारा घर नहीं होता| वो गली कूचे भी घर लगते है जिनमें हमारा मकान होता है घर होता है| जो चीज हमारे मकान को घर बनाती है वो संग – सहारा है जो उस मकान में रहने वाले लोगों में आपस में और मकान में रहने वालों में उन दर – ओ – दीवार से होता है, उस मकान से होता है|

मकान का घर होना यही संग- संगत होती है, मकान का घर होना हमें पास लाते हुए हमें #together करता है, जोड़ता है|

जैसा कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट में लिखा था, मकान बनने के बाद गृहप्रवेश की एक प्रक्रिया है जो हर कोई परिवार अपने मन, रीति – रिवाज और चलन के हिसाब से पूरी करता है| यह भारतियों के लिए यह भी एक समारोह है, जिसमें परिवार के साथ समाज को भी यथा संभव शामिल किया जाता है| लेकिन सबसे बड़ी भारतीय बात जो किसी भी पारवारिक समारोह या कहिये खानदानी जश्न में है, वो है पूरे घर – परिवार को बुलाया जाना| घर – परिवार यानि खानदान, और भारतीय खानदान आपके पितामह के सभी बच्चों के परिवार से लेकर आपके प्रप्रप्रपितामह के सभी बच्चों के परिवार तक हो सकता है|

वही गृहप्रवेश का दिन था| सभी लोग थे, सारे चचेरे–तयेरे-ममेरे-फुफेरे-मौसेरे भाई–बहन| पूजा-पाठ नाश्ता-दावत मस्तियाँ हँसी-मजाक का दौर था| मकान जो अब घर बन रहा था; अगर धूप, इत्र – परफ्यूम, रूम – फ्रेशनर, और इन सबके साथ खुशियों से महक रहा था| बंगलौर से बोस्टन, ज़मीन से आसमान, दर से दीवार, खिडकियों से दरवाजे, कुत्तों से बिल्लियों, स्कूल से यूनिवर्सिटी, ठोकरी से नौकरी, दुनियां जहाँ की सारी बातें थी, और सारी ही बातें थीं, बातें ही बातें थी| सबसे छोटा अभी ढूध पिता बच्चा था और सबसे बड़ी एक दूध पीते बच्चे की दादी थी| सबसे मजेदार बात थी जब सबसे ‘बड़की’ बाकी सब गोलू मोलू छोटू मोंटू पिंटू बबली छुटकी, डोली, जोली और न जाने किस किसके दूध पीते दिनों की अपनी बातें सुना रहीं थी, तो बाकी सब तो अपने अनुभव चीख चीख कर सुना रहे थे| मगर सबसे ज्यादा तो वो छुटकू था जिसके उस दिन उतने ही नाम थे, जितने घर ले लोग थे| उसका असली नाम किसी को याद नहीं था और बाद तक चलने वाला पुकारू नाम उस दिन दिए गए बहुत से नामों में गुम था| उस दिन घर के हर कौने और कौने कौने से उछलते कूदते परिचय हो गया| इस खिड़की से उस खिड़की तक और इस दरवाजे से उस दरवाजे तक कुछ किस्से कहानियां जुड़ गए|

यह अलग बात है की हम उस दिन और समारोह को गृहप्रवेश कहते जरूर है, मगर गृहप्रवेश के लिए कम मगर उन मस्तियों के लिए याद करते है जो शादी- ब्याह के लम्बे चौड़े रीति – रिवाजों में कम ही हो पातीं है|

उस दिन सुबह हम जिसे अपना नया मकान बोल रहे थे, वही इसी सब पूजा-पाठ नाश्ता-दावत मस्तियाँ हँसी-मजाक के बीच शाम तक एक तरोताजा ख़ूबसूरत अपना सा अपना घर हो गया| मकान से रिश्ता बनना मकान का घर होना है|

Advertisement

महंगी गाड़ी और हीरा


एक प्रसिद्ध फ़िल्मी संवाद है; “अगर लड़की स्कूटी पर हो तो प्यार हो जाता है, मगर मर्सडीज़ में हो तो करना पड़ता है|”

साथ ही एक पुरानी कहावत भी है; “लडकियों का सच्चा दोस्त हीरा ही होता है”|

अपने विद्यार्थी जीवन से ही हम उन युगल को देखते आयें हैं जिनमें एक पक्ष प्रायः पढाई, कमाई, या चमकाई में अपने साथी के मुकाबले बहुत कम होता है| परन्तु इन सभी मामलों में दूसरा साथी, प्रायः, पहले साथी को बहुत ही हंसमुख, ध्यान रखने वाला, पूर्णकालिक वफादार साथी मानता है| इन जोड़ों के बारे में प्यार अँधा है वाली कहावत का हम उदाहरण हमेशा देते रहते हैं|

मगर क्या यह जोड़े सदा साथ रहते है; शायद नहीं| मुझे लगता है बराबरी के प्रेम विवाह ज्यादा सफल होते हैं| प्रायः समाज असमान विवाह नहीं होने देता और अगर किसी प्रकार यह विवाह होते हैं तो कई समस्या आतीं हैं| मैं मानता हूँ कि यह समस्याएं परिवार द्वारा तयशुदा भारतीय शादियों में भी उतनी ही होतीं हैं, मगर पारिवारिक विवाहों में सारे लड़ाई- झगड़ें, मान- मुअव्वल और समझौते पूरे परिवार के होते हैं|

बेमेल प्रेम संबंधों पर भले ही परिवारों ने मुहर लगा दी हो तब भी परिवार कभी भी इन जोड़ों के आपसी समस्या सुलझाने के लिए आगे नहीं आते| 

घर मजदूरी


अभी पिछले दिनों खबर पढ़ी कि एक चाय की दूकान पर काम करने वाले ग्यारह साल के बाल मजदूर को चाय पीने आये दो ग्राहकों ने ठीक से आर्डर न ले पाने करण गोली मार दी|

मुझे अपने बचपन की कुछ बातें याद आ गयीं| उन दिनों हम सिकंदराराऊ के नौरंगाबाद पश्चिमी मोहल्ले में रहते थे| पड़ोस में एक परिवार उन्हीं दिनों रहने आया जिसमे चार पांच छोटी छोटी लड़कियां और साल भर का एक लड़का था| जाड़ों के दिन थे| बच्चों की माताजी सुबह धूप निकलते ही छत पर आ जातीं थीं और दिन ढलने तक वही रहती थीं|

पुरे मोहल्ले में उस जल्लाद माँ का जिक्र होने लगा| दस और बारह साल की दोनों बड़ी लड़कियां बारी से खाना बनती थी| तीसरी आठ लड़की अपने छोटी बहन और भाई को नहलाती धुलाती थी| उसकी छोटी बहन रोज जब भी उसकी माँ का मन होता, पिटती रहती थी| साल भर का राजकुंवर दिन भर माँ की गोद से चिपका रहता था| हमें लगता की ये उन लड़कियों की सौतेली माँ है|

एक दिन, माँ ने उनके घर जाने का निर्णय लिया| उस औरत के पिता जिलाधिकारी कार्यालय में काम करते थे| उसे हाई स्कूल के बाद पढाई बंद करनी पड़ी थी और उसे घर के काम में लगा दिया गया था|

उसके अनुसार पंद्रह साल की उम्र से काम करते करते थक गयी थी और फिर ये “नाश-पीटियाँ” आ गयीं| सारा शरीर बिगाड़ कर रख दिया इन्होने| अब काम करना सीखेगी तो इनका ही तो भला होगा| मुझे क्या, दिनभर इनके बारे में सोच सोच कर ही परेशान रहती हूँ|

ऐसे कितने बच्चे हैं जो अपने घर में अपने ही माँ बाप के शोषण का शिकार होते हैं| लड़कियों को घर का काम करना होता है| लड़कों को ज्यादा लाड प्यार तो शायद मिलता है मगर वो भी अछूते नहीं है अपने घर में काम काज से| बाजार हाट, उठा-धराई|

मगर कब तक?