दक्षिण भारतीय खाना – दिल्ली बनाम चेन्नई


दिल्ली में बहुत से लोगों को लगता है चेन्नई में या तो लोगों को दक्षिण भारतीय खाना बनाना नहीं आता या उनको गलत भोजनालय ले जाया गया| कारण है गलत मसालों का प्रयोग|

दिल्ली में रहकर बिना छुरी कांटे दक्षिण भारतीय खाने की बात सोचना कठिन है| चेन्नई मैं छुरा कांटा तो क्या चम्मच भी कोई शायद ही प्रयोग करता हो| हर भोजनालय में चम्मच मांगते है वेटर समझ जाता है कि बाबू बिहारी (हिंदी भाषी) है| वैसे ज्यादातर वेटर बिहार, उड़ीसा, और बंगाल से मालूम होते हैं|

मुख्य बात तो यह कि दिल्ली में मिलने वाला दक्षिण भारतीय खाना कम से कम दक्षिण भारत का खाना तो नहीं कहा जाना चाहिए| एक महीना चेन्नई और हफ्ते भर त्रिवेंद्रम रहने के बाद मुझे तो कम से कम यही लगता है| मुझे ऐसा लगता है कि किसी गुमनाम उत्तर भारतीय ने अपना धंधा चमकाने के लिए दिमागी घोड़े दौड़ा कर दक्षिण भारतीय खाने पर किताब लिख मारी हो और दिल्ली के बाकि लोग उसे पढ़कर खाना बनाने में लगे हैं| भला बताइए कोई रोज रोज अरहर में सरसों का तड़का डालकर सांभर बनाता अहि क्या? मगर ऐसा दिल्ली में संभव है| चेन्नई आने से पहले मुझे पता न था कि मूंग दाल से भी सांभर बन सकती है| दिल्ली और चेन्नई के सांभर मसलों के बीच तो विन्ध्याचल का पूरा पठार दीवार बनकर खड़ा है| मसाला डोसा ऐसा मामला भी चेन्नई में कम दिखाई देता है| दिल्ली में पायसम तो शायद खीर की सगी बहन लगती है, मगर यहाँ तो खीर और पायसम में मामा – फूफी का रिश्ता लगता है|

दोनों जगह नारियल चटनी का स्वाद बदल जाता है| इसमें नारियल के ताज़ा होने का भी योगदान होगा|

मुझे याद है कि दिल्ली में एक मित्र ने बोला था मुझे चेन्नई में लोगों को ठीक से दक्षिण भारतीय खाना बनाना नहीं आता|

जैसा कि मैं पिछली पोस्ट में लिख चुका हूँ, खाने पर स्थानीय रंग हमेशा चढ़ता ही है| दिल्ली शहर में आलू टिक्की बर्गर, पनीर – टिक्का पिज़्ज़ा और तड़का चौमिन यूँ ही तो नहीं बिकते|

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दिल्ली का प्रदूषण पर्व


दिल्ली में साल भर प्रदूषण का स्तर ख़तरे की सभी सीमाओं से कई गुना ऊपर रहता है| लेकिन दिल्ली वाले ठहरे आँख के अंधे कान के कच्चे| न कोई सही चीज आसानी से दीखे, न कोई सही बात आसानी से सुनाई दे| जब तक प्रदूषण से सूरज दिखना बंद न हो जाए तब तक दिल्ली वालों को प्रदूषण समझ नहीं आता| यह उच्चतम प्रदूषण भी दिल्ली वालों के लिए एक पर्व हो गया गया है| बच्चों की स्कूल से छुट्टी, अमीरी में कहीं बाहर घुमने निकल जाना, या एयरप्योरिफायर लगाकर घर में मस्त फ़िल्में देखना| अब तो यह सालाना जलसा हो गया है कि होगा ही होगा| दिल्ली सरकार और भारत सरकार इस पर्व पर कुछ मनोरंजक समाधान पेश करेंगे| यही सब है, और क्या?

वैसे तो प्रदूषण दिल्ली वालों की दीखता नहीं और दिख भी जाए तो हमारे पास बहुत सारे हास्यास्पद समाधान है| जैसे – पंजाब हरियाणा वाले पिराली जला रहे हैं हैं; दिल्ली के गरीब लोग कचरा जला रहे हैं; भवन निर्माण मजदूर धूल उड़ा रहे हैं| हद होती हैं दिल्लीपन की|

प्रदूषण का यह प्रदूषण उच्चस्तर दिल्ली से सामान्य स्तर प्रदूषण से २० से ३०% अधिक ही होता है| सामान्यतः दिल्ली का प्रदूषण स्तर ३०० होता है और दिल्लीवालों का प्रदूषण सहनशीलता स्तर ४०० होता है, जो वैज्ञानिक रूप से पर्यावरण की मृत्यु का परिचायक है| यह प्रदूषणस्तर दिल्लीपन को हास्यास्पद बनाता है| इस स्तर पर दिल्ली की जनता, राज्य सरकार और कभी कभी दिल्ली की भारत सरकार भी जग जाती है| यह जगना इस तरह का है कि कोई नशेड़ी नींद से जागकर नशे में बक बक कर रहा हो|

दिल्ली प्रदूषण के सामान्य प्रमुख कारक भी कम हास्यास्पद नहीं है:

  1. दिल्ली का स्थलमध्य होना: भारत के अधिकतर बड़े शहर समुद्र के काफ़ी निकट हैं, इसलिए प्रदूषण दिल्ली में फंस जाता हैं|
  2. जनसंख्या: प्रति वर्ग किलोमीटर में रहने वाला जनसंख्या घनत्व दिल्ली में इतना अधिक है कि दिल्ली शहर वर्ग प्रतिकिलोमीटर अधिक कार्बन डाई ओक्साइड छोड़ता है| दिल्ली में घरेलू प्रदूषण करक गैस स्टोव, फ्रिज, कूड़ा, हीटर, वातानुकूलन, आदि का घनत्व भी काफ़ी अधिक है|
  3. कूड़ादान: दिल्ली कूड़े का प्रबंधन आजतक ठीक से नहीं कर पाती| यहाँ स्वच्छता का मतलब है किसी मैदान में पेड़ के सूखे पत्तों पर झाड़ू लगाते हुए फ़ोटो खींचना|
  4. जनयातायात साधन: दिल्ली वाले सरकार से यह नहीं पूछते कि बसें इतनी कम क्यों हैं? कॉलोनियों के अन्दर रिक्शे क्यों बंद हैं? मेट्रो का अंतराल कम क्यों हैं? दिल्लीपन में शरीफ़ दिल्ली वालों को मजबूर करता है कि दस हज़ार माहना से भी अधिक खर्चा अपने सर पर डालो और कार ले आओ, भले ही द्वार पर खड़ी रहे| सुरक्षा की संवैधानिक और सार्वभौमिक जिम्मेदारी भी सरकार का उत्तरदायित्व कम से कम दिल्ली में नहीं खड़ा करती|
  5. आस पड़ोस का प्रदूषण: दिल्ली को विकास चाहिए, दिल्ली को सुविधाएँ चाहिए मगर इस विकास की कीमत अदा करने की जिम्मेदारी झारखण्ड, छत्तीसगढ़, या कोई और पिछड़ा राज्य उठाये| मगर भाई प्रदूषण तो हवा के साथ आएगा ही| और विकास की मार झेलता हुया ग़रीब रोजगार की तलाश में दिल्ली ही तो भागेगा ही|

मगर कोई नहीं पूछता की वास्तविक क्या हैं, इनका क्या निदान है और उसमें खुद उसका क्या योगदान होगा और सरकार की अब तब और आगे की उत्तरदायिता क्या है?

खैर छोड़िये, प्रदूषण पर राजनीति करते हैं जब तक दिल्ली वाले खुद प्रदूषण से न मर जाएँ|

बापू की दिल्ली बिल्ली


गबरू नौजवान अपनी शाहना अकड़-धकड़ के साथ चला आ रहा है| उसकी चाल में गजब की मस्ती है मगर चहरे पर लगता है कि बदलते वक़्त ने थोड़ी पस्ती ला दी है| दूर सामने मैदान में दो तीन बूढ़े किसी बात पर संजीदगी से गुफ्तगू कर रहे है| बाद पेचीदा लगती है; नौजवान ने मन ही मन सोचा| वो दूर से ही मामला समझना चाहता है मगर काला कुहासा कुछ देखने नहीं देता| गौर से देखने पर महसूस होता है, बूढ़े मिलकर खों खों खांस रहे है| खांसना भी दिल्ली शहर में गुफ्तगू करने के सलीकों में शुमार होने लगा है|

“क्या इसी कालिख भरे मुल्क के लिए जिए मरे थे?” नौजवान बूढों की तरफ़ बढ़ते हुए सर झटकता है|

उसे अपनी तरफ आता देख बूढ़े शांत होने लगे| पीढ़ियों में सोच का फ़र्क यूँहीं तो नहीं जाता|

“क्या बापू! आज क्या कोई हड़ताल है?” नौजवान ने कुछ परेशानी और कुछ हमदर्दी से पूछा|

मजबूत कद काठी वाला बूढ़ा खों खों कर हंसने लगा|

“अब न वोट क्लब है न जंतर मंतर। हड़ताल करने पर पड़ते हैं हंटर।“ जैकिट वाले बूढ़े ने उदास लहजे में कहा|

“मामला क्या है, कुछ नहीं तो बापू अपनी समाधि पर ही जाकर बैठ जाइएगा|” नौजवान ने मजाकिया मगर इज्जतदार लहजे में कहा|

“आप क्यों नहीं कोई धमाका कर लेते, बरखुरदार?” मजबूत कद काठी वाला बूढ़ा बोला|

“ब्राउन ब्रिटिश से क्या लड़ें? साँस लेना दूभर हो चुका है| अब तो फ़िजाओं में स्वदेशी गर्द और गंदगी है|” नौजवान मायूस लहज़े से कहने लगा| दिल के दर्द से कहिये कि फैफड़े के दर्द से, नौजवान के गले से खों खों के दबी आवाज़ धमाके होने लगे| तीनों बूढों की खाँसी और बढ़ गई|

बापू धरने पर बैठने की जगह ढूंढ रहे थे कि बिना साँस फुलाएं बैठ सके। जगह न मिली दिल्ली में| बिल्ली बने और मास्क पहन लिया ज़नाब।

Delhi pollution (c) vikram nayak