हॉउस हसबैंड की डायरी


पुरुष द्वारा समाज में अपने को (गृह-स्वामी नहीं) गृहस्थ कहना आत्म-अपमान है| पर हम सब उन पुरुषों को जानते हैं जो पूर्ण गृहस्थ रहे हैं| अधिकतर यह परिस्तिथिजन्य या नाकारगी मान लिया जाता है| यदि एक गृहणी खाली समय में कुछ काम करे तो उसे गृहणी के रूप में ही सम्मान (अपमान) दिया जाता है| गृहस्थ को उसके अल्पकालिक कार्य या पुरानी नौकरियों से जोड़कर देखा जाता है| दोनों ही विचित्र विडंबना हैं| 
हॉउस हसबैंड की डायरी के लेखक को भी बहुधा यह याद दिलाते रहना पड़ा है कि वह अब पत्रकार नहीं है| हम जान पाते हैं कि वह खाली समय में पढ़ता बहुत है| जब वह जाने अनजाने खुद को छात्र कह जाता है, कोई प्रश्न नहीं करता| जब वह कहता है कि हम “प्रेग्नेंट” हैं, तो प्रश्न होता है|

प्रसन्नता है कि खुद को पूर्ण गृहस्थ कहने का साहस किया गया है| यह साहस पुस्तक रूप में आने पर विशेष हो जाता है| जहाँ अन्य गृहस्थों को नाकारा जाता रहा है, यहाँ आत्मस्वीकारोक्ति को नकारना कठिन है| 

लेखकीय कल्पना, स्वतंत्रता और उपन्यासात्मकता के बाद भी यह पुस्तक गृहस्थ के निजी संघर्षों व आत्मविश्लेषणों से गुजरती हुई उस दबाब को देख पाती है जो संतुलित पुरुष को गृहस्थ के रूप में करना होता है| जहाँ सामाजिक दबाव पुरुष को गृहस्थ नहीं होने देता वहाँ पुरुष अस्तित्व का संघर्ष करता है| यह प्रश्न भी उठता है कि क्या लेखक मात्र इतने ही संघर्ष का सामना करता यदि वह इस कालखंड में भारत में ही होता?

पुस्तक इस सन्दर्भ में भारतीय समाज का पूर्ण परिदृश्य नहीं पेश करती| लेखक के संघर्ष किञ्चित भिन्न हैं| लेखक का अनिवासी भारतीय हो जाना हमें चमक दमक से दूर के अमेरिका के दर्शन का अवसर देता है| बहुत सी राहतें हैं तो अज्ञात रुकावट भी हैं| 

यह लेखक के आत्मनिर्भर भारतीय गृहस्वामी होने से लेकर निर्भर अनिवासी भारतीय गृहस्थ होने की गाथा है| यह जीवनयात्रा आम मान्यता के विपरीत सफल पुरुष होने से नाकारा हो जाने का दुखांत नहीं है| गृहस्थ निर्भर होते जाने को महसूस करता है| स्त्रियाँ प्रायः निर्भर होते जाने के संघर्ष को नहीं, संघर्षोपरांत प्राप्त आत्मनिर्भरता के खोते जाने को महसूस करती हैं| यहाँ बिना मजबूरी निर्भर होने का स्वतंत्र निर्णय और परिणामजन्य निर्भरता को अनुभव किया गया है| बदलती हुई पहचान को उकेरा गया है| 

यह इंगित करना आवश्यक है कि आप गृहस्वामी से गृहस्थ, गृहस्वामिनी से गृहणी और गृहणी से गृहस्थ की तुलना नहीं कर सकते| गृहणी और गृहस्थ के बीच तन और मन दोनों का बड़ा अंतर है| पुरुष गृहस्थी की अलग शैली विकसित करते हैं, जो परिवार और समाज के लिए गृहस्थी का भिन्न परिमार्जन करती है|  

इस गाथा का दूसरा पहलू एक छात्र दंपत्ति का नितांत नए देश में अपना अस्तित्व बनाना है| उन्हें छात्रवृति और सीमित सामाजिक सुरक्षा के बूते जीवन को चलाना है| इस बात को रेखांकित किया जाता रहा है कि उन्होंने अपना गर्भ इस प्रकार योजनाबद्ध किया कि संतान अमेरिकी नागरिक बने| कितना सुन्दर विचार है, अगर वह इतना दूर की सोच पाते हैं| हम देख पाते हैं कि अमेरिकी तंत्र अपने निवासियों और नागरिकों के प्रति कितना मानवीय है| उनके विशुद्ध पूँजीवाद के अंदर वह सभी सामाजिक कल्याणकारी राज्य के पहलू उपस्तिथ हैं, जिन्हें भारतीय मध्यवर्ग साम्यवाद और समाजवाद कहकर नकारता है| हम यह भी देख पाते हैं कि एक मध्यवर्गीय और  निम्नवर्गीय अमेरिका भी है| सुनहरे सपनों से दूर उसका अपना अलग जीवन भी है| 

लगभग ३०-३२ अध्याय के बाद अधिक औपन्यासिकता आ जाती है| यहाँ तक लेखक अपने गृहस्थ और देश को समझ चुका है| यहाँ से आगे गृहस्थी से अधिक अमेरिका को अनुभूत किया जा सकता है| उसे एक अलग कहानी के रूप में देखा जा सकता है|  

पठनीय पुस्तक है| 

पुस्तक बिंज ऍप पर है और फ़िलहाल बिना खर्च पढ़ी जा सकती है| 
पुस्तक: हॉउस हसबैंड की डायरी
लेखक: जे सुशील 
प्रकाशक: बिंज ऍप
प्रकाशन वर्ष: २०२१
विधा: आत्मकथात्मक गल्प, डायरी 

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जेएनयू कथा अनंता


मुझे पुस्तकें पढ़ते समय पीछे से शुरू करने की आदत है| इस पुस्तक का कोई पृष्ठ भाग न होना यह दर्शाता है की यह कथा लेखक की दृष्टि में अभी पूरी नहीं हुई| अधूरी किताब पर किया लिखूँ?
यह किताब जीवन की तरह अधूरी है और यह बात आकर्षित करती है| हर अनुभव एक गप्प से होकर संस्मरण बनता है तो यह बनते हुए संस्मरण की किताब है| चाय पीते, गप्प मारते हुए अनुभव साँझा करते करते गंभीर और संजीदा होते चले जाने वाली शैली में कही गई है| 

इस किताब को पढ़ते चले जाना मेरे लिए खोए हुए सपने को जी लेना था| मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ना चाहता था और बस चाहता ही रहा, प्रयास भी नहीं किया| 

किताब पढ़ना शुरू करने से पहले मैं रेखाचित्रों को देख रहा था| रेखाचित्र बनाते समय मी निर्लिप्त और निरपेक्ष प्रेक्षक के रूप में देखे समझे अनुभव बेहतर उकेर रहीं हैं| यह मेरी आशा पर खरा नहीं उतरा, जो अनुभव के उकेरे जाने की प्रतीक्षा में था| अनिवासी छात्र होने के कारण शायद भोगे हुए अनुभव नहीं उतार पा रहीं है| मी बेहतरीन प्रेक्षक हैं और कला में पूरी निष्ठा से उकेरती हैं| उनके काम के प्रति यह (अभी तक की) मेरी सामान्य समझ भी है| 

जे अक्सर गंभीर लिखते हैं, मन में काफी उधेड़बुन पालने के बाद लिखते है| यह उनकी खूबी रही है| भले ही यह उनकी पहली किताब है, हम सब उनको पढ़ते रहे हैं| उनकी लिखी सोशल मीडिया पोस्ट एक लम्बा जीवन रखती हैं| यह किताब भी उनकी लिखी फेसबुक पोस्ट का सम्पादित रूप है| मूल लेखन के समय सुशील उद्वेलित थे परन्तु सम्पादित होकर शांत गभीर महसूस होते हैं| हर्फों की मामूली हेर फेर से कितना फर्क आ जाता है? 

आप्रवासी युवा जब दिल्ली पहुँचते हैं तो समझने बूझने अनुभव करने के लिए दिल्ली के अंदर उतरना होता है| यह युवा मात्र पर्यटक नहीं होते न ही उन्हें कमाने धमाने का दबाब होता है कि बिना समझे जिंदगी जी ली जाए| मैं जिस दबाब की बात कर रहा हूँ वह विज्ञान और अभियांत्रिकी के छात्रों में भी रहता है| जे दिल्ली, जेएनयू और जिंदगी को समझते हुए आगे बढ़ते हैं| उनके सामने से एक स्वप्निल परिदृश्य मष्तिस्क के रोज गुजरता है| वह मात्र प्रेक्षक नहीं रहते बल्कि उसे गुनते बुनते आगे बढ़ते हैं| छोटे छोटे अनुभव उन्होंने उधेड़े और बुने हैं| यह किताब उन्हीं गुने बुने अनुभवों का आगे बढ़ाती है| जे बिना किसी साहित्यिक कलाबाज़ी के उसे एक मजे हुए किस्सागो की तरह की तरह साँझा करते हैं पर उनकी शैली किस्सागो वाली नहीं है| वह पाठक या किसी सहपाठी के साथ गप्प करते हुए अनुभव साँझा करते हैं| उन अनुभवों में जे क्या निचोड़ते हैं उसे सामने रखते हुए निर्लिप्त आगे बढ़ जाते हैं| 

जे जेनयू की बात करते हुए उसकी किसी तरफ़दारी से बचते हैं अच्छा बुरा सब बताते चलते हैं| जे जेएनयू के जन मानस के सहारे उस के मन मानस को सामने रखते हैं| 

जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता हिंदी लेखन में अभिनव और पठनीय प्रयोग है| इसे प्राप्त करने के लिए यह कड़ी चटकाएँ| इसके लेखक हैं जे सुशील और दाम है मात्र सौ रुपए|