जेएनयू कथा अनंता


मुझे पुस्तकें पढ़ते समय पीछे से शुरू करने की आदत है| इस पुस्तक का कोई पृष्ठ भाग न होना यह दर्शाता है की यह कथा लेखक की दृष्टि में अभी पूरी नहीं हुई| अधूरी किताब पर किया लिखूँ?
यह किताब जीवन की तरह अधूरी है और यह बात आकर्षित करती है| हर अनुभव एक गप्प से होकर संस्मरण बनता है तो यह बनते हुए संस्मरण की किताब है| चाय पीते, गप्प मारते हुए अनुभव साँझा करते करते गंभीर और संजीदा होते चले जाने वाली शैली में कही गई है| 

इस किताब को पढ़ते चले जाना मेरे लिए खोए हुए सपने को जी लेना था| मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ना चाहता था और बस चाहता ही रहा, प्रयास भी नहीं किया| 

किताब पढ़ना शुरू करने से पहले मैं रेखाचित्रों को देख रहा था| रेखाचित्र बनाते समय मी निर्लिप्त और निरपेक्ष प्रेक्षक के रूप में देखे समझे अनुभव बेहतर उकेर रहीं हैं| यह मेरी आशा पर खरा नहीं उतरा, जो अनुभव के उकेरे जाने की प्रतीक्षा में था| अनिवासी छात्र होने के कारण शायद भोगे हुए अनुभव नहीं उतार पा रहीं है| मी बेहतरीन प्रेक्षक हैं और कला में पूरी निष्ठा से उकेरती हैं| उनके काम के प्रति यह (अभी तक की) मेरी सामान्य समझ भी है| 

जे अक्सर गंभीर लिखते हैं, मन में काफी उधेड़बुन पालने के बाद लिखते है| यह उनकी खूबी रही है| भले ही यह उनकी पहली किताब है, हम सब उनको पढ़ते रहे हैं| उनकी लिखी सोशल मीडिया पोस्ट एक लम्बा जीवन रखती हैं| यह किताब भी उनकी लिखी फेसबुक पोस्ट का सम्पादित रूप है| मूल लेखन के समय सुशील उद्वेलित थे परन्तु सम्पादित होकर शांत गभीर महसूस होते हैं| हर्फों की मामूली हेर फेर से कितना फर्क आ जाता है? 

आप्रवासी युवा जब दिल्ली पहुँचते हैं तो समझने बूझने अनुभव करने के लिए दिल्ली के अंदर उतरना होता है| यह युवा मात्र पर्यटक नहीं होते न ही उन्हें कमाने धमाने का दबाब होता है कि बिना समझे जिंदगी जी ली जाए| मैं जिस दबाब की बात कर रहा हूँ वह विज्ञान और अभियांत्रिकी के छात्रों में भी रहता है| जे दिल्ली, जेएनयू और जिंदगी को समझते हुए आगे बढ़ते हैं| उनके सामने से एक स्वप्निल परिदृश्य मष्तिस्क के रोज गुजरता है| वह मात्र प्रेक्षक नहीं रहते बल्कि उसे गुनते बुनते आगे बढ़ते हैं| छोटे छोटे अनुभव उन्होंने उधेड़े और बुने हैं| यह किताब उन्हीं गुने बुने अनुभवों का आगे बढ़ाती है| जे बिना किसी साहित्यिक कलाबाज़ी के उसे एक मजे हुए किस्सागो की तरह की तरह साँझा करते हैं पर उनकी शैली किस्सागो वाली नहीं है| वह पाठक या किसी सहपाठी के साथ गप्प करते हुए अनुभव साँझा करते हैं| उन अनुभवों में जे क्या निचोड़ते हैं उसे सामने रखते हुए निर्लिप्त आगे बढ़ जाते हैं| 

जे जेनयू की बात करते हुए उसकी किसी तरफ़दारी से बचते हैं अच्छा बुरा सब बताते चलते हैं| जे जेएनयू के जन मानस के सहारे उस के मन मानस को सामने रखते हैं| 

जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता हिंदी लेखन में अभिनव और पठनीय प्रयोग है| इसे प्राप्त करने के लिए यह कड़ी चटकाएँ| इसके लेखक हैं जे सुशील और दाम है मात्र सौ रुपए|

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