कानून निर्माण प्रक्रिया


विद्यालय में नागरिक शास्त्र हाशिये पर रहने वाला विषय है| इन किताबों में विधि निर्माण की जो प्रक्रिया हम पढ़ते हैं वह बहुत किताबी है: निर्वाचित सरकार संसद या विधान सभा में कानून का मसौदा रखती है; संसद या विधानसभा उस पर चर्चा (बहस नहीं होती, अब) करती है और मतदान के बाद कानून बन जाता है| मगर यह सतही जानकारी है|

सेवा और वस्तु कर, आधार, दिवालिया एवं शोधन अक्षमता, खेती किसानी के नए कानून एक दिन में नहीं आए| इन में से कुछ पर चाय-चौपालों में चर्चा हुई तो कुछ वातानुकूलित कक्षों से अवतरित हुए| कानून सरकार के सपनों में अवतरित नहीं होते| यह देशकाल में प्रचलित विचारों की प्रतिध्वनि होते हैं| हर पक्ष का अलग विचार होता है| सबको साथ लेकर चलना होता है| सोचिए, एक घर में छोटा बच्चा, मधुमेह मरीज, रक्तचाप मरीज, अपच मरीज, चटोरा, मिठौरा, अस्वादी, आस्वादी, दंतहीन, सभी लोग हों तो अगले रविवार दोपहर को रसोई में क्या (और क्या क्या) पकेगा|

अधिकतर कानून सोच-विचार से उपजते हैं| उदहारण के लिए जब दस हजार साल से खेती किसानी हो रही है तो कानून की क्या जरूरत, परम्पराओं से चीजें चलती रही हैं| परन्तु हर सौ दो सौ साल में खेती, खेती की जमीन, खरीद-फ़रोख्त आदि पर कानून बनते रहे हैं|

जब भी कोई पक्ष यह सोचता है कि स्थापित प्रक्रिया में कुछ गलत है या और बेहतर हो सकता है तो वह तत्कालीन कानून में सुधार बिंदु खोजता है| इसके बाद कोई यह सोचता है कि यह सुधार आखिर क्या हो तो कोई यह कि इस सुधार को किस प्रकार शब्द दिए जाएँ| जब यह सब हो जाए तो लिखत के हर शब्द के मायने पकड़ने होते हैं| कई बार शब्दों को नए मायने दिए जाते हैं| यहाँ विराम और अर्धविराम का संघर्ष प्रारंभ हो जाता है| अंग्रेजी के मे may और shall जैसे शब्द तो बंटाधार भी कर सकते हैं| परन्तु मेरी चर्चा या चिंता का विषय नहीं है|

किसी भी कानून निर्माण प्रक्रिया में होती है गुटबंदी, तरफ़दारी, ध्यानाकर्षण, शिकवे-शिकायत, और भी बहुत कुछ| जिस समय हम दिल्ली भौतिक सीमा पर बैठे हजारों किसानों को देख रहे हैं, मैं राजधानी की प्रभामंडलीय सीमा के अन्दर व्यवसायिक लॉबी समूहों, पेशेवर सलाहकारों, चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स, किसान संघों, नोटबैंकों, वोटबैंकों, राजनैतिक पैतरेबाज़ों, उपभोक्ता समूहों, वितरकों, निर्यातकों, विदेशी आयातकों, लंगर-भंडारा चलाने वाले दानशीलों, ढाबे वालों, नामीगिरामी रेस्तरो, शेयर बाजारों, सरकारी अधिकारीयों कर्मचारियों आदि को देख पा रहा हूँ और यह सूची पूरी नहीं है| इसके साथ हैं एडवोकेसी समूह जो किसी भी कानून और कानूनी प्रक्रिया के बारे में जनता के मध्य जागरूकता फैलाते हैं| परन्तु यह काम कानून बनने से बहुत पहले शुरू हो जाता है| इन्हीं लोगों का काम है कि कम स्वीकार्य कानून को भी जनता के बीच लागू कराये| लगातार जटिल होते जा रहे समाज में कई बार कानून के पक्ष या विपक्ष में  समर्थन जुटाने के स्थान पर विरोधियों के विरूद्ध विरोध जुटाने का काम भी होता है| जैसे निजीकरण विरोधियों के विरोध में आप उलटे सीधे तर्क सुन सकते हैं| इस प्रोपेगंडा का मकसद कानून के पक्ष-विपक्ष में बात करने के स्थान पर अपने हित-विरोधियों को बदनाम करने का होता है|

किसी भी कानून के लिखने में सभी पक्षों के विचार सुने गए, सरकारी अधिकारीयों, मंत्रियों और विपक्षियों ने उन्हें अपने मन में गुना, सत्ता के  ने इन पर अपने निजी समीकरण लगाए, फिर विचारों का एक खाका बना| यह खाका किसी संस्था या समूह को लिखत में बदलने के लिए दिया| उन्होंने अपना हित और हृदय लगाया| सरकारी नक्कारखाने में तूती और तुरही कितना बोली, कितना शहनाई और ढोल बजा, किसे पता? यह लिखत किसी बड़े सलाहकार समूह के सामने जाँच के लिए रख दी जातीं हैं| जैसे दिवालिया कानून विधि लीगल ने लिखा तो  वस्तु और सेवाकर का खाका बिग-फोर ने खींचा| अगर आप पिछले बीस वर्षों की बात करें तो शायद हो कोई कानून संसद में बहस का मुद्दा बना हो या उस पर बिंदु वार विचार हुआ हो| संसद के पास समय नहीं है| उदहारण के लिए कंपनी कानून को उर्जे-पुर्जे समझने के लिए बीस विशेषज्ञ के दल को पूरे बारह माह लग गए थे जबकि संसद में इसपर बीस घंटे भी चर्चा नहीं हुई| परदे के पीछे संसदीय समितियाँ चर्चा तो करतीं हैं, परन्तु उनकी बातें बाध्यकर नहीं होतीं है| यही कारण है कि इस कानून से भी कोई संतुष्ट नहीं हुआ (कंपनी धरना नहीं देतीं – लॉबी करती हैं)| यह ही हाल अन्य कानूनों का है|

यह ध्यान रखने की बात है कि किसी भी कानून से सब संतुष्ट नहीं हो सकते| कोई भी कानून स्थायी नहीं होता| हमें प्रक्रियात्मक कानून किसी भी क्षण पुराने हो सकते हैं, जबकि विषय-विवेचना सम्बन्धी कानून थोड़ा लम्बे समय तक बने रहते हैं|

जब भी हम किसी कानून पर बात करते हैं तो हमारा नजरिया शास्त्रार्थ वाला होना चाहिए| सुधार होते रहना चाहिए| कानून का मूल किसके मन में जन्मा, किसने शब्द दिए किसने संसद में पेश किया, यह सब बेमानी बातें हैं| मूल बात यह कि सभी अधिकतम सुविधा, सभी को न्यूनतम असुविधा के साथ कैसे मिले|

वर्तमान में भी मुद्दा यह नहीं कि विरोध करने वाले किसान हैं या नहीं, मुद्दा है कि कानून हित में है या नहीं|

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गदर्भ न्याय


भारतीय पुलिस को के बार आतंकवाद के आरोपी गीदड़  पकड़ने के आदेश मिले| पुलिस वाले बस इतना ही जानती थी कि गीदड़  कोई जानवर होता है| साल भर कुर्सी तोड़ने के बाद भी उन्हें गीदड़  नहीं मिला| एक दिन थाने के सामने घास चरता हुआ गधा मिल गया| तो उसे गीदड़  बना कर पकड़ लिया|

लात घूसे और लाठियां खाते खाते गधे को पता चला कि इन पुलिसियों को गीदड़  चाहिए| तो मार से बचने के लिए उसने खुद का गीदड़  होना कबूल कर लिया| अपराध में अपने शामिल होने के बारे में एक कहानी सुना दी|

सरकारी वकील ने अदालत को बताया हुजूर जानवरों के बारे में लिखी सबसे बड़ी किताब में लिखा है गीदड़  के सींग नहीं होते और पूँछ होती है| जो कि आरोपी के है| तो अदालत ने गधे को गीदड़  करार दे दिया|

इस बीच मंत्रीजी ने लालदीवार से गीदड़  पकड़ने वाले पुलिसियों को पुरुस्कार घोषित कर दिया| उधर अगले दिन वकील सफाई ने दलील दी कि आरोपी के खुर है, जो गीदड़  के नहीं होते| तो मंत्रीसेवकों ने उनको देशद्रोहियों का साथी बताना शुरू कर दिया| देश भर में अपराध पीड़ितों के लिए न्याय की मांग जोर पकड़ गई|

अदालत ने देश की भावना का सम्मान किया और गधे को गधा मानते हुए खुर न होने  की असमानता परन्तु अन्य समानता के आधार पर गीदड़  का भाई और उस के अपराध स्वीकार करने के आधार पर उसको अपराधी घोषित कर दिया|

मोमबत्तीवालों ने बड़ेदरवाजे जाकर मोमबत्ती जलाईं| मंत्रीजी ने पुलिसियों का मोरल डाउन करने के आरोप में मोमबत्ती वालो ने पीछे कुत्ते छोड़ दिए| और पटाखे वालों ने पटाखे फोड़े|

कहानी चलती रही| कहानी चलती रही| कहानी चलती रही| … कहानी यूँ ही चलती रही|

मंत्री जी की कुर्सी सालों साल बैठे रहने से चरमराने लगी| बढई ने बताया कुर्सी ठीक करने के लिए गीदड़  का खून लगेगा| पुलिस ने बताया, हमारे कब्जे में तो गीदड़  का भाई गधा है|

आनन फानन में मंत्री जी, अदालत, पुलिस, मोमबत्ती और पटाखे हरकत में आये|

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अख़बार ने लिखा “नरक में जा गधे|” गीदड़  ख़ुश हुआ| मोमबत्ती और पटाखे बिके| मंत्री जी ने बिरयानी खाई| पुलिस का मोरल आसमां से चिपक गया| कुछ गधों को कुछ यकीन आया|

बाद में एक किताब आई….

क़ानून पर आम भारतीय नजरिया


क़ानून के हाथ लम्बे होते हों या न हों उसका डंडा बहुत लम्बा, मजबूत, कंटीला और कठोर होना चाहिए, जिस से कि पडौसी का सिर एक बार में फूट जाये| आज डंडे का जमाना नहीं है तो आप रिवाल्वर या रायफल कर लीजिये| मगर यह एक आम भारतीय नजरिया है|

दूसरा फ़लसफा खास भारतीय यह है कि क़ानून एक भैंस है जिसे कोई भी अपनी लाठी से हांक सकता है बशर्ते उसकी लाठी उस चौकी, थाने, जिले या सूबे में सब पर भारी होनी चाहिए| इस फ़लसफ़े का दूसरा तर्जुमा है, क़ानून एक ऐसी रांड है जिसे कोई भी अपनी रखैल बना कर उसका मजा मार सकता है|[i]

तीसरा और सबसे खास भारतीय क़ानूनी फ़लसफा ये है कि अगर क़ानून की बात हो तो उसमें अपना सिर नहीं अड़ाना चाहिए| इसलिए हम भारतीय ऊपर लिखे सभी फ़लसफ़ों को दिल से लगाकर रखते है और तब तक ज़ुबान पर नहीं लाते| इसीलिए भारतीय पडौसी का सिर और अपना पिछवाड़ा फूटने तक चुप रहते है और हाकिमों के तलवों ने सिर छिपाए रखते हैं|

अब साहब अगर इन सादा सरल फ़लसफ़ों को समझने में कोई दिक्क़त तो तो कुछ वाकये सुनते हैं, जो कुछ दूर पास का ताल्लुक इन फ़लसफ़ों से रखते हैं| क़ानूनन आपको को बता दे कि सभी वाकयात एकदम बेहूदा और वाहियात हैं और उनका किसी सच से कोई ताल्लुक नहीं है| अगर आपको सच लगें तो ऊपर लिखा तीसरा फ़लसफ़ा दोबारा पढ़ें|

जब क़ानून किसी किसी कुर्ता- पायजामा को जूते पहना रहा हो या कुर्ता – पायजामा क़ानून के जूते बजा रहा हो तो आपके पास दूसरा फ़लसफ़ा पढने का वक़्त नहीं है| आप अगर शरीफ़ हैं तो चुपचाप घर जाकर बच्चों को कबीरदास का “सांच बराबर तप नहीं” वाला दोहा सुनाएँ| अगर आप झाड़ पौंछ शरीफ़ हैं तो कुर्ता – पायजामे का रंग देखें| अगर आपका और उसका रंग एक है तो भारत माता की जय बोलें और अगर रंग अलग है तो उसका फ़ोटो और फोटोशॉप सामाजिक क्रांति के लिए प्रयोग कर दें|

अगर क़ानून किसी अदालत में गोल गोल घूम रहा है तो दूसरा फ़लसफ़ा जेहन में आता है| अदालतें लाठी वालों का पिकनिक स्पॉट हैं जहाँ क़ानून की भैंस हर कोई दुहता है|

सूट बूट हिंदुस्तान में सबसे ताकतवर होता है| सूट बूट का दिमाग उतना ही वातानुकूलित रहता है जितना उसके फार्महाउस का अय्याशखाना| यह हमेशा तफ़रीह के सीरियस मूड में रहता है और क़ानून खुद-ब-खुद इसकी बाँहों में| क़ानून इसके भाव – भंगिमा को खूब पहचानता हैं और हमेशा एक खास तरह में मूड में रहता है| अब, दूसरा फ़लसफ़ा का दोबारा न पढ़े|

अब बात आती है इस पूरी बकवास से मतलब क्या निकल रहा है| हमारे मुल्क में जो बात सबको पता हो, उसे बताना बकवास ही तो है| रे भाई, बताया था न, अगर क़ानून की बात हो तो उसमें अपना सिर नहीं अड़ाना चाहिए|

बाकि जो मतलब जो बकबास है वो अगली बार बताई जाएगी| तब तक क़ानून से बचकर रहें| सलामत रहें और हमेशा की तरह ऑफिस में सूट – बूट और सोशल मीडिया पर कुर्ता – पायजामा के सामने नतमस्तक रहे| अपने ईश्वर और ईमान को औक़ात में बनाये रखें|

[i] सुसंस्कृत अनुवाद:- “भारत की सर्वमान्य नगरवधु विधि, समस्त योग्यजन के लिए प्रसन्नताकारक होती है|”