ढाई वर्ष अंतराल पर मैट्रो ट्रेन यात्रा


शीतकालीन अतिप्रदूषण के अंतिम सप्ताह चल रहे थे| घुटन से जकड़े हुए फेफड़े आराम करना चाहते थे| मुझे ठीक से साँस नहीं आ रही थी और घुटी हुई खाँसी हर साल की तरह लगातार कष्टप्रद होती जा रही थी| हर दिन की तरह मेरे चेहरे पर लगा हुआ नकाब उर्फ़ मास्क लोगों के लिए कोतूहल का विषय था| 

नकाब वाला चेहरा लोगों को अतिरिक्त सहानुभूति के साथ व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता था| यदि मेरे मस्तक पर थकान की रेखाएँ होती तो लोग मुझे बैठने के लिए जगह दे देते| “अरे आप बैठे रहिए” कहते हुये मुझे शर्म, कृतज्ञता और अपराधबोध का अनुभव होता, वास्तव में मैं उनमें से अधिकतर से अधिक स्वस्थ और युवा था| प्रायः जब जरूरत होती, कोई बैठने के लिए जगह का प्रस्ताव नहीं करता|
कष्टप्रद यह नहीं होता कि आप को सहानुभूति न मिले, बैठने की जगह न मिले, कष्टप्रद होता है आपको जुगुप्सा के साथ देखा जाना और बीमार अछूत से बचने कि कोशिश होना|
कमजोर फेफड़े छूत की बीमारी नहीं थे पर अनुभव का असंभव संसार खोल रहे थे| हर दिन कोई न कोई निगाह आपको दुत्कारती थी| कुछ लोग दूसरी ओर मुँह कह भी देते हैं कि जब मास्क लगाने जितने बीमार हो तो मेट्रो में बीमारी फैलाने क्यूँ आए हो? बढ़ते प्रदूषण के इस दौर में भी नकाब, मास्क, एन-95 आदि शब्द आम शब्दावली और चलन में नहीं थे| इन्हें फैशन के रूप में ठीक से कल्पना करना भी मध्य वर्ग के लिए कठिन था|

कुल मिलाकर यह भी वैसा ही दिन था| मेरे मोबाइल पर विदेश समाचार पत्र में चीन में बीमारी की नाजुक हालात पर खबर खुली हुई थी, मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि अगर मानव डायनासोर कि तरह पृथ्वी से प्रस्थान करने जा रहा है तो यह सब शांति से हो और हमारे कंकालों और जीवाश्मों के साथ करोड़ों साल बाद कोई अनादर या छेड़छाड़ न हो| जिस समय मैं प्राचीन जीवों के कंकालों और जीवाश्मों के साथ मानवीय दुर्व्यवहार के लिए क्षमा माँग रहा था, सहानुभूति के एक पुतले ने मुझसे उस अज्ञात ला-इलाज़ बीमारी के बाबत बात की जिस की अतिगंभीरता के कारण मैंने मोटा विदेशी मास्क लगा रखा है| मुझे मास्क के विदेशी ब्रांड की उसकी समझ पर कोई प्रसन्नता नहीं हुई, इस बात पर ध्यान गया कि उसके सही प्रयोग के बारे में कुछ नहीं पता था| न ही उसे किसी वैश्विक महामारी के बारे में कोई जानकारी थी| उस से बात करते करते मैंने एक प्रसिद्ध ऑनलाइन स्टोर से दस मास्क की एक पुड़िया खरीद ली| उसने इसे नोटबंदी की सफलता माना| 

एक आशंका ने मुझे घेर लिया, दिल्ली मेट्रो  में यह मेरी अंतिम या लंबे समय तक के लिए अंतिम यात्रा हो सकती है| उस दिन शाम भय हम सब के मेरूदण्ड की अस्थि-मज्जा तक पहुँच चुका था| कोविड -19 भारत में था| जल्दी ही विश्वगुरु तालियाँ और थालियाँ बजाकर बीमारी भगा रहे थे| फिर एक विदेशी टीका हमारे कारखाने में बनने लगा और हम ब्रह्माण्डगुरु बन गए| सब के घर कोई न कोई साथ छोड़ गया, फिर समय ने सब घाव भर दिए|

Photo by Tim Douglas on Pexels.com

समय गतिमान है और समाज स्थिर| 

लगभग ढाई वर्ष बाद में पुनः मेट्रो में चलने की हिम्मत जुटा पाया| दो दिन पहले तक का नीला आसमान आज प्रदूषण के वार्षिक उत्सव की धुंधलकी सूचना दे रहा था| इन ढाई वर्ष में मेरे कमजोर फेफड़ों ने कोविड को कम से कम दो बार झेल लिया| मैं कोविड को और नहीं झेलना चाहता| बुखार खाँसी जुकाम मुझे अब अधिक चिंताजनक लगते हैं| पूर्ण सुरक्षा, अनुशासन, नियमित व्यायाम और प्राणायाम के बाद काल मुझ से गलबहियाँ करकर गया था| 

मेट्रो में लोगों का व्यवहार देख कर नहीं लगता था कि लोग साल भर पहले तक भयाक्रांत थे| बहुतों ने शेष जीवन दोहरे मास्क लगाने की शपथ ली थी| कुछ दिन पहले तक बड़े बड़े फैशन स्टोर कर कपड़े के साथ मास्क दे रहे थे| सामाजिक दूरी जैसे शब्द का कहीं बहुत दूर सभी लोग एक दूसरे के श्वास-निःश्वास में रचे बसे थे| लगभग सभी कानों में फुसफुसिए लगे थे| यह फुसफुसिए हमारे लिए अपना अलग द्वीप बना देते हैं| अपनी दुनिया, अपना संगीत, अपनी बातें, अपना चलचित्र, अपना चरित्र, अपना घोटुल| यह आभासी द्वीप हमें समाज से मानसिक दूरी देते हैं, शारीरिक नहीं| ऐसे मैं हम अपराधों और बीमारियों से सुरक्षा का आभास पाते हैं और
नकाब की सुरक्षा हम भूल जाना चाहते हैं| बड़े बड़े दुर्ग प्राचीरों और खाइयों ने सुरक्षित रखे हैं|

बढ़िया यह है कि कोई भी आपको बीमार मानकर सहानुभूति नहीं दिखा रहा, बैठने के लिए जगह का प्रस्ताव नहीं कर रहा, कोई बेचारगी नहीं दिखा रहा| किसी के मन मे वितृष्णा जैसा भाव नहीं दिखाई देता| मेरी हल्की फुल्की खाँसी न तो सामान्य है और न इस बार कोई अनावश्यक सहानुभूति पैदा कर रही है| कुछ निगाह यह निश्चित करने के लिए उठ जाती है कि मैं अपने मास्क के अंदर ही खाँस रहा हूँ| ऐसे लोगों भयाक्रांत कायर अधेड़ के प्रति सहानुभूति है| 

फिर भी इन ढाई वर्ष में मानव नहीं बदला है|

ऐश्वर्य मोहन गहराना

Advertisement

करोना डायरी


पिछले बरस जब तालाबंदी हुई, तब आम जनता खासकर मध्यवर्ग में डर था, परन्तु निराशा नहीं थी| देश विभाजन के बाद का सबसे बड़ा पलायन और मानवता एक बड़ा प्रति-पलायन देख रही थी| सरकारें आलोचना का सामना कर रहीं थीं, पर उन्हें सिरे से नकारा नहीं जा रहा था| बीमारी के समाचार आते तो कुछ एक मामलों को छोड़कर ठीक होने के समाचार भी आते| बीमारी को सांप्रदायिक रंग देने के निंदनीय प्रयास भी हुए और आपराधिक मामले दायर किए गए| परन्तु हम सबकी रसोई गुलज़ार रही| नए नए पकवान बनते रहे| विद्वानों ने सामाजिक माध्यमों से पाककला को नए आयाम दिए| व्यायाम की कमी के चलते खाते पीते लोग अलग पहचाने जाने लगे|

देश की आधी आबादी गरीबी के चलते या गरीबी में फंसने के चलते कठिनाई झेल रही थी| भरी भरकम तालाबंदी के चलते करोना मुक्त इलाके भी अकाल जैसे कुचक्र में फँसने लगे| कई छोटे व्यवसाय बर्बाद हुए| जब तक सरकार को कर-संग्रह में कठिनाई का सामना न करना पड़ा, सरकार को कोई खास अहसास नहीं हुआ| सरकार को घोषित वायदों पर भरोसा था| जल्दी ही अर्थव्यवस्था की आवश्यकता ने जोर मारा|

सकारात्मक भावना के साथ करोना के साथ जीने की आदत डालने की बातें हुई| यह सकारात्मकता कुछ हद तक करोना को नकारने तक चली गई| बड़े शहरों के बाहर तो मास्क बिल्कुल नजर नहीं आ रहा था|

जब हम बीमार होने को बीमार की गलती मान लेते हैं तो हम बीमारी के साथ खड़े होते हैं|

आज हम बीमारी के बड़े खतरे में फँस चुके हैं| बीमारी अपना रंग भी तेजी से दिखा रही है| बहुत से लोग जो साल भर से बाहर नहीं निकले बीमार हुए हैं| भारत में महिलाओं का घर से निकलना बहुत कम होता है, उनके बीमार होने के समाचार अधिक हैं| यानि छोटी छोटी गलतियों से बीमारी घर तक आ रही है| ऐसा नहीं है कि यह गलतियाँ केवल बाहर से घर में आने वाले कर रहे हैं| यह गलती पूरी व्यवस्था की है| आखिर कैसे?

सोचिये, साल भर पहले मन्त्र थे:

  • जब तक बहुत जरूरी न हो तो कार्यालय न जाएँ|
  • बिना काम घर से न निकलें|
  • घर पहुंचते ही, नहाना धोना करें फिर कोई और काम|
  • घर तक पहुँचने वाली किसी भी वस्तु हो सके तो हवा भी साफ़ करें|

फिर अर्थव्यवस्था को सँभालने के प्रयास में होश खो दिए गए| एक बार ढील मिली थी तो “घर से काम की संस्कृति” की बात करने वाले, “आखिर कब तक” के आलेख लिखने लगे| ५०-५० का नियम कार्यालय से हवा हो गया| कार्यालय में “दो गज की दूरी” की मजबूरी “मिलजुल कर काम की भावना” में बदल गई| कार्यालयों में मिलजुल कर भोजन होने लगे| किसी ने सोचा ही नहीं कि बीमारी दबी है टली नहीं| शीशों के बंद कार्यालयों में बिना वातानुकूलन बैठना फिर से भारी लगने लगा| इस सब के ऊपर सरकार अपने कर्मियों को पूरी संख्याबल में कार्यालय आने के लिए बाध्य करने लगी|

कुम्भ, चुनाव, शादी-ब्याह, लंगर, भण्डारे, सकारात्मकता, सामूहिक सकारात्मकता, सब पुरानी राह पर चल पड़े थे| जिस समय बड़े देश तालाबंदी के पुनरायोजन में लगे थे, विश्व-गुरु होने का गुरूर हमारे सर पर नाच रहा था| हमारा अहंकार इतना बड़ा था कि हमने दवाएं दान देने का नाटक शुरू किया| जिन चिकित्सा सुविधाओं के वादे हुए उनका पता नहीं चलता कि घोटाले में बदल गईं या सरकारी गति से चल विकसित हो रही हैं|

पिछला एक पखवाड़ा बुरी ख़बरों की झड़ी लगा चुका है| ओह, इतने नासमझ तो … … …

कोविड की अफ़वाह


दिन प्रतिदिन मुझे इस बात का विश्वास होता जा रहा है कि कोविड की बीमारी एक अफवाह से अधिक कुछ नहीं| हमारे थाली थाली ढोल नगाड़ों के चलते यह बहरा होकर बहुत पहले ही पाताललोक जाकर छिप गया है अथवा जनता कर्फ्यू के समय ही यह बेमौत मारा जा चुका है|

हम अर्थ-व्यवस्था के नाम पर सड़कों पर दौड़ रहे हैं| निजी और सरकारी कार्यालय से लेकर दुकान मकान तक सब अपने अपने कर्मचारियों को काम पर आने के लिए विवश कर रहे हैं| इन में से मैं भी एक हूँ| आखिर आप अर्थतंत्र में सबसे नीचे पायदान पर मौजूद घरेलू नौकरानी को तो बिना काम के लम्बे समय तक पैसा नहीं दे सकते| खासकर अगर आप घर से काम करते हैं, उसका होना जरूरी है| आप कारखाने दुकान मकान भी बंद नहीं कर सकते| परन्तु लिपिक को कार्यालय बुलाने की जरूरत नहीं है|

मैं तालाबंदी का कोई प्रसंशक नहीं रहा, परन्तु उसका सीमित समर्थन किया था| मुझे लगता था कि हमारी केंद्र और राज्य सरकारें बेहतर योजना बनाने के लिए समय लेना चाहती हैं| छः महीने के बाद आजतक हमारे पास न चिकित्सालय का तंत्र बना, न कोई दवा है, न कोई वैकल्पिक अर्थतंत्र| परन्तु सरकार के साथ साथ मुझे पढ़े लिखे तबके ने भी मुझे बहुत निराश किया है| हम अपनी जड़े काटने वाले समाज के रूप में सदा ही जाने जाते रहे हैं| 

हम कार्यालयों में अवांछनीय उपस्तिथि को कम करने के स्थान पर सभी को कार्यालय आने ले किये विवश कर रहे हैं| बहुत से लोग जो घर से काम करने की स्थिति में हैं, उन्हें भी कार्यालय आने को कहा जा रहा है| कार्यालयों में लिपिकों और बहुत से अधिकारीयों को उपस्तिथि आवश्यक नहीं होती – वो अपनी जरूरी कागजात घर ले जाकर काम कर सकते हैं| गैर जरूरी व्यवसायों को खोला गया है जबकि इनमें से बहुतों को खोलने का खर्च आय से बहुत कम हैं| बड़े भोजनालय, केशसज्जा केंद्र, आदि कई धंधे अभी तक लाभ-बिंदु तक नहीं पहुँच पाए परन्तु सामूहिक घाटे के साथ काम करने के लिए विवश है|

दुःख है कि शपथ जैसे नाटकों को हम पूरी निष्ठा से निभा रहे हैं, परन्तु अपने सुरक्षापर्दे (मास्क) को अपनी नाक पर नहीं बिठा पा रहे| सामाजिक या व्यक्तिगत दूरी को तो मैं दिल्ली में अवांछनीय मानता हूँ – बड़े शहरों का जनसँख्या घनत्व इस प्रकार की दूरी को अव्यवहारिक बनाता है| राजधानी दिल्ली तक में बैंको, डाकघरों से लेकर हाट बाजारों तक लोग अपने सुरक्षा परदे का प्रयोग ठीक से नहीं कर पा रहे|

मैं कई बार सोचता हूँ यदि प्रधानमंत्री जी ताली बजाने, दिए जलाने और फूल बरसाने जैसे प्रतीकों से आगे बढ़ पाते तो आज उनकी बात मानकर हर नाक पर सुरक्षापर्दा होता| पर भारत का मध्यवर्ग शायद ऐसा न होने देता – उसे तो भक्ति आती हैं, समझ नहीं|

ऐश्वर्य मोहन गहराना

नए ब्लॉग पोस्ट की अद्यतन सूचना के लिए t.me/gahrana पर जाएँ या ईमेल अनुसरण करें:

Enter your email address to subscribe to this blog and receive notifications of new posts by email.