आरक्षण बेचारा!!


मानसून और चुनाव हमारे राष्ट्रीय मौसम हैं| इन मौसम में मेढ़क और नेता अपने बिल और बंगलों से बाहर निकल आते हैं| मॉनसून और चुनावों के बाद दिवाली शुरू हो जाती है, इसलिए पुराने साज-सामान और वादों को धो पौंछ कर चमकाया जाता है|

इस बार प्रधानमंत्री जी ने पुराने वादे को वादों के कब्रिस्तान से खोदखाद कर खड़ा कर किया है| गरीबों को दस फ़ीसदी आरक्षण मिलने जा रहा है| बधाईयाँ… , … …. … थोड़ी देर बाद|

सवाल यह नहीं रहा कि पिछले पच्चीस साल में कितने लोगों की आरक्षण का लाभ मिला और आरक्षित श्रेणी के कितने पद खाली छूट गए? सवाल खास ये है कि नौकरियां कहाँ हैं? आज बेरोजगारी का आंकड़ा ९ फीसदी के पास पहुँच चुका है| सरकारी नौकरियां लगातार घटी हैं, तो आरक्षण के वास्तविक अवसर कम होते रहे हैं| सरकारी खर्च में कटौती के नाम पर अधिकतर सरकारी काम ठेके पर हैं या व्यवसायिक करार दिए जाकर निजी क्षेत्र को बिक चुके हैं|

आरक्षण की इस घोषणा का सबसे खूबसूरत पहलू है – गरीबी का पैमाना|

सालाना आठ लाख की पारवारिक आय आरक्षण वाली गरीबी का पहला मापदंड है| गरीबी रेखा तो बेचारी आरक्षण वाली गरीबी आगे पानी मांगती है| यह आंकड़ा देश की प्रति व्यक्ति आय से बहुत अधिक है| देश की लगभग नब्बे प्रतिशत से अधिक आबादी इस आय निर्धारण के हिसाब से गरीब घोषित हो गई है| सरकार ढ़ाई लाख से उपर सालाना आय पर आयकर वसूलती है| बहुत से शहरी मित्र कहते हैं कि आयकर सीमा प्रतिव्यक्ति है और आरक्षण सीमा प्रतिपरिवार| मगर पति पति दोनों चार चार लाख से कम कमायें तो दोनों आयकर अमीर और आरक्षण गरीब होंगे|

मैं इस बात से सहमत होना चाहता हूँ कि गरीबी रेखा से नीचे वाले व्यक्ति को आरक्षण देने का कोई फायदा नहीं होगा| कारण वास्तविक गरीबी रेखा से नीचे वाले गरीब का बच्चा इतना पढ़ लिख नहीं पाता कि किसी सरकारी पद के लिए वास्तव में योग्य घोषित हो पाए| चपरासी के लिए भी कम से कम आठवीं पास उम्मीदवार चाहिए होता है| अगर किसी की वास्तव में लाभ देना है तो इस आरक्षण के लिए गरीबी की सीमा रेखा वास्तविक गरीबी रेखा से निश्चित ही ऊपर होनी चाहिए| मगर यह आठ लाख इस रेखा से बहुत ऊपर है|

जमीन या घर के पैमाइश भी बड़ी अजीब है| सौ एकड़ का सिचाई विहीन ऊसर किसी परिवार को अमीर नहीं बना सकता तो मरीन ड्राइव पर दस फुट का घर या दफ्तर लेना बहुत से अमीरों के बस की बात नहीं| कुल मिलाकर संपत्ति के आधार पर गरीबी का कोई वैज्ञानिक निर्धारण नहीं हो सकता|

ध्यान देने की बात है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का न मुद्दा नया है न प्रयास| यह मुद्दा संविधान सभा के सामने भी आया था और प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने बाकायदा नियम भी बनाया था| पहले संविधान सभा और बाद में उच्चतम न्यायालय ने इसे संविधान सम्मत नहीं पाया| संसद में विधेयक पास हुआ है, विधानसभाओं में भी हो जाएगा| मगर… … नौकरी हो तो मिलेगी|

शेष कुशल हैं| चुनाव की चुनावी बधाई|

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आरक्षित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जातिगत आरक्षण न दिए जाने का मुद्दा जोरों पर है| यह नया मुद्दा नहीं है| पिछले साठ सत्तर सालों से यह मुद्दा उठता रहा है| सरकारी पत्राचार होता रहा है| स्थानीय सवर्ण हिन्दू हमेशा इस विश्वविद्यालय में जातिगत आरक्षण के विरोध में रहे हैं| वास्तव में मुस्लिम समुदाय को इस विश्वविद्यालय में जातिगत आरक्षण से कोई फ़र्क नहीं पड़ता|

जातिगत आरक्षण के मुद्दे का सरकारी पत्राचार से बाहर आना कई परिकल्पनाओं पर आधारित है:

  1. इस विश्वविद्यालय में मुस्लिम तबके के लिए आरक्षण है|
  2. जातिगत आरक्षण से विश्वविद्यालय में लगभग आधे लोग उस आरक्षित तबके होंगे जो हिन्दू है या कम से कम सरकारी कागजों में हिन्दू माना जाता है|
  3. मुद्दा उठाने वालों को तात्कालिक राजनीतिक लाभ मिलेगा|

यह विश्वविद्यालय वास्तव में कोई धार्मिक या जातिगत आरक्षण नहीं देता| पचास प्रतिशत का आंतरिक छात्रों के लिए दिया जाने वाला आरक्षण और गैर मुस्लिम समुदाय का यहाँ पढने की इच्छा न रखना इस को मुस्लिम बहुल विश्वविद्यालय बनाने का काम बखूबी करता है|

यहाँ पढाई वास्तव में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर शुरू होती है और यह छात्र आगे चलकर पचास प्रतिशत आरक्षण का लाभ पाते कहते हैं| ज़ाहिर हैं, प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर अधिकतर छात्र मुस्लिम परिवारों से होते हैं| इनमें भी अधिकतर छात्रों के परिवार के परिवार खानदानी तौर पर यहाँ के छात्र हैं| इसके बाद बची हुई सीटों के लिए खुला मैदान है| देश विदेश का हर सुखी संभ्रांत मुस्लिम परिवार अपने बच्चों को यहाँ पढ़ाने ले लिए दस दस साल से मेहनत का रहा होता है| उनके जेहन और यह गिने चुने विकल्प में होता हैं, जहाँ उनके बच्चे सुरक्षित होंगे| इस सोच में उनका दोष नहीं है न ही वो डरपोक हैं, यह असुरक्षा की भावना उनपर लादी गई है|

अभी तक इस विश्वविद्यालय में पढने वाले हिन्दू भी मुस्लिमों की तरह परिवार के परिवार पढ़ते रहे हैं| इसका कारण यह है कि सांप्रदायिक ताकतों के द्वारा खड़े किये गए पारस्परिक अविश्वास के चलते अन्य हिन्दू परिवार यहाँ अपने बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते| साथ ही अलीगढ़ में दंगों की संख्या भले ही बहुत कम हो अलीगढ़ के बाहर लोग इसे इसी तरह देखते हैं कि यहाँ मानो बहुत लम्बा गृहयुद्ध चल रहा हो|

इस विश्वविद्यालय में जातिगत आरक्षण मांगने वालों का एक भ्रम (बल्कि गणित) यह भी है कि जातिगत आरक्षण की लाभार्थी जातियां हिन्दू हैं| ध्यान देने की बात यह है कि बड़ी संख्या में मुस्लिम जातियाँ भी आरक्षण का पात्र हैं और उनकी जनसंख्या भी कम नहीं है| यदि इस विश्वविद्यालय में जातिगत आरक्षण आता भी है तो आरक्षण का पात्र मुस्लिम तबका बड़ी संख्या में अपना हक ज़माने में कामयाब रहेगा| अगर आप विश्विद्यालय के मुस्लिम बहुमत को तोड़ना चाहते हैं तो ऐसा नहीं होगा| वास्तव में अगड़े और पिछड़े मुस्लिमों में आपस में मेलजोल का नेक काम होगा| अगर इस गणित को ध्यान से समझें तो धरातल पर राजनैतिक झुकाव में कोई परिवर्तन यह मुद्दा नहीं ला सकता|

हाँ, नुक्सान में कौन रहेगा? कुछ सवर्ण हिन्दू परिवार|

आरक्षण पर पारस्परिक कुतर्क


आरक्षण के समर्थन या विरोध में वाद –विवाद करते रहना धर्म, राजनीति, क्रिकेट और खाने-पीने के बाद भारतियों का प्रिय शगल है| मुझे आरक्षण की मांग मूर्खता और उसका विरोध महा-मूर्खता लगती है| सीधे शब्दों में कहूँ तो आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में खड़े राजनीतिक दल या राजनेता भारत और किसी भी भारतवासी के हितेषी नहीं हो सकते| अगर आप चाहें, यह आगे न पढ़ें|

मेरे इस आलेख पर इस बात का कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आरक्षण का प्रस्ताव अपने आप में उचित था या नहीं| हालाँकि मुझे पारदर्शिता के हित में अपनी निजी राय रख देनी चाहिए| मुझे लगता है, जब तक समाज में असमानता है –आरक्षण की आवश्यकता है|

प्रख्यात कुतर्क है कि आरक्षण का देश के विकास पर कुप्रभाव पड़ता है| परन्तु सभी जानते हैं कि अपेक्षागत तौर पर कम आरक्षण वाले हिंदीभाषी राज्य अधिक आरक्षण वाले दक्षिणी राज्यों से बेहद कम विकास कर पाए हैं| एक कारण यह है कि दक्षिणी राज्यों में आरक्षण और उसका सही अनुपालन अधिक बड़े जन समुदाय को आगे बढ़ने की प्रेरणा देने में सफल रहा है| दक्षिणी राज्यों में विश्विद्यालयों और सरकारी नौकरियों में आरक्षित और अनारक्षित प्रतिभागियों के योग्यता सूची में अंतिम आने वाले प्रतिभागीयों के योग्यतांक का अंतर लगातार घट रहा है| दक्षिणी राज्यों में अधिकतर प्रतिभागियों को आरक्षण अथवा बिना आरक्षण लगभग बराबर का संघर्ष करना पड़ रहा है| जबकि उत्तरी और पश्चिमी राज्यों में योग्यता प्रदर्शन की खाई बरक़रार है|

आरक्षण के समर्थन (और नई मांग) या विरोध में खड़े होने वाली भीड़ को देखें| भीड़ के अधिकतर सदस्य वो निरीह प्राणी होते हैं जो शायद किसी प्रतियोगी परीक्षा में दस प्रतिशत अंक भी न ला पायें| जब इस प्रकार के उग्र प्रदर्शन होते हैं उस समय उनके सभी योग्य जातिभाई सरकारी या निजी क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों का लाभ उठाने का उचित प्रयास कर रहे होते हैं|

जातिगत भेदभाव के विपरीत, सभी वर्गों से नए नए उद्यमी आगे आ रहे हैं| व्यापार के साथ साथ बड़े उद्योगों में भले ही सवर्णों और अन्य धनपतियों ने आधिपत्य कायम किया है, छोटे और मझोले उद्योगों में हमेशा की तरह शूद्र कही गई जातियों का आधिपत्य है| ध्यान देने की बात है कि प्रायः सभी उत्पादक और सेवा प्रदाता जातियाँ प्राचीन काल से शूद्र के रूप में वर्गीकृत होती रहीं हैं| दुःखद यह है कि इनमें अपने पारंपरिक कार्यों के प्रति वही घृणा भर दी गई है, जो सवर्ण सदा से उन कार्यों से करते रहे थे|

अब, आइये मुख्य मुद्दे पर आते हैं|

रोजगार सुधार

आरक्षण समर्थक और विरोधी दोनों ही वर्ग सरकारी नौकरी के लालच में एक दूसरे से लड़ रहे हैं| कोई नहीं देखता कि सभी उत्पादक रोजगारों के मुकाबले सरकारी क्षेत्र में बहुत कम अवसर हैं| साथ में, बड़े और विदेशी उद्योगों और संस्थानों के दबाव में आवश्यक सरकारी पद भी नहीं भरे जा रहे| लागत कम करने के नाम पर सरकारी क्षेत्र को मानव संसाधन विहीन करने की परंपरा चल रही है|  इस नाते प्रथम दृष्टया आरक्षण अप्रभावी हो रहा है| वास्तव में मांग होनी चाहिए कि सरकारी गैर सरकारी क्षेत्रों में सभी खाली पद समय पर भरे जाएँ| अनावश्यक निजीकरण न हो| कोई भी व्यक्ति अपने कार्यालय में विवश होकर या लालच में भी आठ घंटे से अधिक समय न बिताये| ओवरटाइम की व्यवस्था समाप्त हो| पूरे साल में कोई भी व्यक्ति अगर दो हजार घंटे पूरे कर ले उसे साल भर के सभी लाभ एक घंटे भी बिना कार्यालय जाए बाकि बचे हुए समय में मिलें| आप देखेंगे कि देश में न सिर्फ रोजगार बढ़ जायेगा बल्कि कार्यालय में जीवन काटते लोग, वास्तविक जिन्दगी जी पाएंगे|

विकास

यदि देश में समुचित विकास हो तो कोई कारण नहीं कि सभी रोजगार योग्य युवाओं को रोजगार न मिले| सोचिये अगर किसी समय एक लाख पदों के लिए भर्ती होनी हो और रोजगार योग्य कुल युवा भी एक लाख के आसपास हों| ऐसे में किसे आरक्षण की जरूरत होगी? जब भी कोई राजनेतिक दल आरक्षण के समर्थन या विरोध में कोई बात कहता है, वास्तव में वह विकास के प्रति अपनी द्रष्टिहीनता की घोषणा करता है| यही कारण है कि विकास का नारा लगाने वाले बड़े बड़े तुम्मन खां नेता आरक्षण का तुरुप  नारा अपनी वाणी में बनाये रखते हैं| ध्यान रहे की विकास किसी सरकारी फीताकाट योजना से नहीं आएगा, वरन उच्च शिक्षित युवाओं द्वारा प्रतियोगी माहौल में आगे बढ़कर काम करने से आएगा|

आपको को आश्चर्य होगा, मगर मुझे बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के अलावा कोई भी राजनेता सच में आरक्षण विरोधी नहीं लगा|