सुनो जोशीमठ ,
अकेले नहीं हो तुम| तुम ही अकेले नहीं हो| अकेले नहीं ढह रहे हो तुम| तुम्हारे साथ मैं भी हूँ| तुम्हारे साथ हम भी हैं|
तुम्हारी ऊँचाइयों पर जब तब पैरों के नीचे से दरकने लगती है जमीन| इसमें नया तो कुछ नहीं| कुछ भी तो नया नहीं है| ऊँचाइयाँ कितनी आकर्षक होतीं हैं, उफ़, उतनी अच्छी भी तो नहीं होती| ऊँचाइयाँ दरकती ही रहती हैं| कौन है जो ऊंचाइयों की माया में नहीं फँसता? कौन है तो ऊंचाइयों से नहीं फिसलता – लुढ़कना?
उफ़! यह भी तो सच नहीं हैं| फिसलना लुढ़कना तो चलता ही रहता है भले ही आप जमीन पर हों, जमीन के नीचे गढ़े हों, अनंत गहराइयों में आपकी नींव गड़ी हो| सोचो तो कभी पृथ्वी भी तो लुढ़कती है हर पल लट्टू की तरह, फिरकनी की तरह|
नहीं मैं कुछ नहीं कहना चाहती| मेरा तुम्हारा दुःख सांझा है| कभी मेरी भी सुनो|
हमें दूसरों के कष्ट के सब कारण पता होते हैं और अपनी सफलताओं के भी| हम जानते है दूसरों के सुख और अपने कष्ट| चलो मिलकर चलते हैं, मैं अपने कष्ट और तुम्हारे कष्टों का कारण तुम्हें सुनाऊँ और तुम मुझे| चलो मेरे साथ, तुम्हें कुरेदने की चाहत कुछ मुझे भी तो कुरेदेगी| चलो हम एक दूसरे को कुरेदें|
सड़क बिजली और पानी तुम्हारे लिए तबाही लाते हैं, मेरे लिए भी| मानव को विकास क्रम में सरल और स्वतंत्र हो जाना चाहिए था| पर आदर्श स्वप्नलोक में विचरते हैं, अस्तित्व में नहीं उतरते|
आज विकास की बेड़ी में जकड़ा मानव उन्नति की वेदी में अपनी बलि दे रहा है और उस विकास यज्ञ में स्वाहा हो रहा है उसका तन, मन, चित्त, चरित्र, श्रम, परिश्रम, विश्राम, समय, भूत, भविष्य, सौन्दर्य, प्रकृति, पृथ्वी, हम सब और तुम सब|
जब तुम्हारे नीचे से धरती दरक रही है, मेरे पैरों के नीचे से दरक रहा है पानी चुपचाप, बिना चेतावनी, बिना ध्यानाकर्षण, बिना चर्चा| मैं भी दरक रही हूँ तुम्हारी तरह| नहीं, शायद तुम्हारी तरह नहीं, बहुत धीरे धीरे| मेरे नीचे की धरती धंस रही है धरती में बरस दर बरस|
मेरे पाँव तले पानी नहीं हैं, मैं शुष्क हो चली हूँ| ठीक उस तरह जिस तरह आधुनिक मानव की आँख शुष्क होती है| अब शर्म से मेरी आँखों में पानी नहीं आता,भले ही कोई प्यासा रह जाए| बचा खुचा पानी आँखों तक चढ़ आता है, जब संतानों द्वारा दी गई अनंत पीड़ा मुझे फिर फिर घेरती है|
हर बारिश तुम फिसलते हो रपटते हो, हम देखते है वर्षा के वशीभूत तुम्हारा स्खलन| कितना रूमानी लगता होगा तुम्हें सुंदर मौसम तुम्हारा स्खलन? तुम्हें याद होगा ऐसे ही एक रोज मौज चढ़ी तो केदार तक, स्खलित हो गए थे एक के बाद एक पहाड़| नहीं, मुझे मत कहो तुम संवेदनहीन| नहीं, मेरा तुम्हारा दुःख तो सांझा है| यह मेरा क्रदन है|
जब तब सोचती रही हूँ, कम से कम तुम्हारे पास सुंदर साँसें हैं| स्वच्छ वायु है- प्राणवायु है| मेरे पास क्या है? फिर ध्यान आता है यदि जीवन ही न हो तब इस स्वच्छ प्राणवायु का क्या करोगे तुम? फिर हर पल अपनी घुटती रूंधतीं साँसे ध्यान आतीं हैं, आँखों की जलन याद आती है, सीने की जकड़न याद आती है, हर सप्ताह की खाँसी याद आती है| पैसे से खरीदे जा रहे सुख याद आते है: वायु शोधक, रोग-प्रतिरोधक, स्वास्थ्यवर्धक, जीवन संरक्षक| किस से मैं अपना बचाव करूँ? अपनी साँसों से – अपने फैलाये प्रदूषण से|
दुःखता है दिल, जब सुनती हूँ – दिल्ली ऊँचा सुनती है| कितना शोर है मेरे पास – सिर्फ़ सत्ता ही शोर नहीं मचाती, सत्ता के पास होने का थोथपन उस से अधिक शोर मचाता है| सोचो तो तुम, नई दिल्ली के बाहर का हर शख़्स अपने पते में पूरे शान-ओ-ईमान से लिखता है- नई दिल्ली| क्या कहूँ तुमसे| झूठी शान जीते जीते सात जिंदगियाँ जी चुकी – कितना कष्ट भोगना होगा|
मुक्ति जितना जल्द हो, सुखद है – हर दिन न कहना पड़े – ईश्वर उठा ले मुझे|
कम लिखा अधिक समझना| इस सब को गुनने के लिए तो फ़िलवक्त कितना बचोगे तुम, नहीं जानती|
तुम्हारी बेहद बड़ी बहन|
दिल्ली