कोई पानी नहीं भरना चाहता


कोई पानी नहीं भरना चाहता| 

“किसी के सामने पानी भरना” सिर्फ ऐसे ही तो मुहावरा नहीं बन गया| एक मुहावरा और है “हुक्का भरना”| शहरी लोग सोचते हैं कि “चिलम भरना” और “हुक्का भरना” एक बात होगी पर हुक्का भरने में चिलम भरना और पानी भरना दोनों ही श्रम व सजा हैं| 

शर्त लगा कर कहा जा सकता है, पानी भरना दुनिया का सर्वाधिक श्रम का काम है| किसी कूप-तालाब-नहर-नदी से पानी भरकर लाना किसी के लिए भी कठिन हो सकता है, मगर अपनी अंजलि में पानी भरना और उसे अर्पण कर देना ऐसे ही पुण्य कर्म नहीं माना गया है| इसके पीछे तार्किक सोच समझ नजर आती है| जीवन के आधार जल की प्राप्ति और फिर उसका अर्पण अपने आप में महत्वपूर्ण है| हम सब को जल प्राप्त हो, हम सब को जल अर्पण कर सकें|

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बड़े बड़े राजे-महाराजे जो कर्म पुण्य तालाब, बाबड़ी, नदी, नहर खुदवा कर न पा सके, वही पुण्य अंजलि भर जल भरकर उसे इष्टदेव को अर्पित करने पर इहलोक से स्वर्ग लोक की यात्रा सुगम हो जाने की मान्यता है| अतिथि देव को जलपान करवाने में जो पुण्य है वह भोजन-दावत-लंगर- भंडारे करवाने से किसी प्रकार भी कम नहीं माना गया| शिव अपने शीर्ष पर गंगा को धारण करते हैं, जटाओं में गंगा जल भरते हैं, अपने आप में गंगा को भर लेना, जटाओं में गंगाजल भर लेना, उसे बांध लेना, उसकी गति साध लेना कोई सरल कार्य नहीं है| बहुत ही गंभीर रूपक है| 

वर्तमान में जल भरना बेहद कठिन काम हो गया है| मानवता जलसंकट के कगार पर खड़ी है| आधे से अधिक आबादी पीने के पानी के संकट से गुजर रही है| दुनिया भर में स्त्रियाँ पानी भरने के लिए दस दस कोस तक के चक्कर लगा कर घर-परिवार के लिए पानी भर रहीं हैं| पुरुषों के लिए यह संकट इतना बड़ा है कि उनकी आँखों तक का पानी सूखने लगा है| इसे आँसू सूखने से न जोड़े, वह अलग और सामान्य बीमारी है| पुरुषों को पानी भरने से बचने के लिए बड़े जतन करने पड़ रहे हैं| जलवधू (पानी भरवाने के लिए गरीब लड़कियों से होने वाला विवाह) जैसे कर्म किए जा रहे हैं| सोचिए मात्र पानी भरने की समस्या स्त्रियॉं के लिए एक अलग और अतिरिक्त शोषण का जरिया बन रही है| दुनिया भर के छायाचित्रकार सिर पर दस दस मटके और कलश लादे स्त्रियों के छायाचित्र उतार कर वास्तविकतावाद के प्रणेता बन गए हैं| कवि लचकती कमर और दचकती गर्दन पर संग्रह लिख रहे हैं| 

पानी भरने का श्रम सिर्फ ग्रामीण हल्कों की ही समस्या नहीं है| हालिया चुनावों में मुफ्त जल और मुफ्त विद्युत बेहद बड़े चुनावी मुद्दे बने हैं| दिल्ली जैसे शहरी राज्यों में जल बेहद महत्वपूर्ण है| यहाँ जल मुख्यतः आयातित है, क्योंकि वर्षाजल का कोई संरक्षण नहीं है और यमुना से मिलने वाला जल जल संधि के कारण ही उपलब्ध है| यहाँ का भूमिगत जल किसी भी क्षण समाप्त होने जा रहा है| दिल्ली के लिए जल अस्तित्व का संकट बन सकता है और पाँच नहीं तो एक हजार साल लंबे इसके राष्ट्रिय प्रभुत्व को समाप्त कर सकता है| 

मगर जल को हम आम जीवन में महत्व नहीं देते| यह इस से स्पष्ट है कि जल संरक्षण तो दूर गर्मियों में फ्रिज़ बोतलों तक में पानी भरना हम सब को कठिन लगता है| प्रतीकात्मक रूप से ही सही, पर फ्रिज़, मटके, सुराही आदि में पानी भरने को गंभीरता से लिया जाए तो बात आगे बढ़े| 

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कर्बला दर कर्बला


मैं इतना कायर हूँ कि दंगे के बीच से गुजर जाऊँ, चाकू छुरे के सामने खड़ा हो जाऊँ, मगर दंगे के बारे में सुनने,  देखने, लिखने और पढ़ने में दिल बैठ जाता है| शहर अलीगढ़ में रहकर दंगा जीना पड़ता है, मगर हर दिन उन्हें जीना मेरे बस के बाहर है|
उस दिन रतौल के स्वादिष्ट आम खाते हुये, सोचा न था कि गौरीनाथ अनर्थ कर रहे हैं| बोले “कर्बला दर कर्बला” भेज रहा हूँ| दिमाग़ कुंद हुआ तो बोल दिया, जी भेज दीजिए पढ़कर बताता हूँ| 

एक दंगा होता तो झेल जाता, यहाँ तो दंगे ही दंगे थे| मगर जब किताब उठाई तो फिर छोड़ी न गई सिवा इसके कि बीच बीच में दिल को दिलासा दिया जाए, कि आगे कोई दंगा न होगा, न किताब में न देश में| वैसे अब दंगे कहाँ होते हैं, नरसंहार को दंगा कह देना सरकारी प्रपंच है, तथ्य नहीं| किताब पर अपनी बात कहने से पहले एक प्रशासनिक कहावत याद आई, जब बरामद चाकू और छुरे का अनुपात तीन-एक या एक-तीन से अधिक होने लगे तो उसे दंगा कहते हुए थोड़ा आँख चुरा लेनी चाहिए| 

वह दिन मुझे आज भी दहला देता है तब तक मैंने सिख सिर्फ चित्रों में देखे थे और मेरे हाथ में एक चाबुक था, उम्र आठ साल, स्कूल या मोहल्ले में किसी को तंग करने की कोई शिकायत मेरे विरुद्ध नहीं थी| उस दिन माँ ने गाल पर चांटा रसीद किया था| दिन, तारीख़, वक़्त और मौका बताने की कोई जरूरत नहीं है| यह उन दंगों से अलग था जो शहर अलीगढ़ में देखते हुए हम बड़े हुए|

हर उपन्यास की पृष्ठभूमि में देशकाल होना आवश्यक है, यह देशकाल इतिहास बनाता है| हर उपन्यास अपने समाज और समय का प्रछन्न इतिहास होता है| ऐतिहासिक तथ्यों को कथा वस्तु में पिरोते चले जाना गज़ब संतुलन मांगता है| गौरीनाथ इस संतुलन को साधने में असुंतलन की सीमा तक जाते हैं| साहित्यिक संतुलन और कथावस्तु पृष्ठ 238 पर साथ छोड़ देते हैं, पठनीयता, पत्रकारिता, पाठकीय रुचि शेष रहती हैं। अंत में बचता है, शेषनाग की तरह कुंडली मार कर बैठा एक रक्तरंजित प्रश्नचिन्ह|

मैं पहला वाक्य पढ़ रहा हूँ: “पानी, दूब और धान लेकर खड़े होने की हैसियत सब के पास थी|” यह “थी” मुझे हिला देता है| इस उपन्यास इस वाक्य पर दोबारा बात नहीं हुई मगर यह पानी, दूब और धान के हमारे मन-आँगन में न बचने के क्रम की कथा है| अस्सी का दशक वह दशक है जो विमर्श, विचार, आचार आदि से पानी, दूब और धान को निकाल देने का प्रारम्भ करता है| विभाजन के समय जो कुछ हुआ, उसने पानी को हमारे मन से मिटाया और हम दूब और धान बने रहे|

यद्यपि पानी, दूब और धान लेकर खड़े हो सकने की हमारी क्षमता नष्ट होने का प्रारम्भ सत्तर के दशक में प्रारम्भ हो जाता है, पर अस्सी की राजनीति पानी, दूब और धान को नष्ट कर गई| सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, आतंकित, रोजगारित कारणों से अस्सी का दशक, जड़ से कटने की कथा है| अस्सी की इस राजनीति को समझने का एक बड़ा दरवाजा इस उपन्यास से खुलता है|

हिन्दू मुस्लिम दंगों को प्रायः तथाकथित विदेशी आक्रमणों की पृष्ठभूमि में देखा जाता है| जिन विदेशी आक्रमणों की हम बात करते हैं प्रायः वह या तो आर्यवृत्त के अपने इलाकों से हुए हैं या एकदम पड़ौस से| जब इन आक्रमणकारियों के धर्म हमारे वर्तमान धर्म से मिलते जुलते हैं, हम गर्व से उन्हें पढ़ते पढ़ाते हैं जैसे कुषाण वंश| यहाँ तक कि सिकंदर के साथ आए यूनानियों, बाद में मध्य एशिया से आए शक हूणों और लूटपाट, शोषण आदि कर कर चले गए पश्चिमी यूरोपियों से हमें कोई कष्ट नहीं होता| 

हमारी कहानी बिगड़ती है मुस्लिमों के साथ| पुरानी कहावत है जो बर्तन पास रहेंगे वहीं आपस में बजेंगे| यहाँ तो बनते बिगड़ते रिश्तों का लंबा सामाजिक आर्थिक राजनैतिक, कूटनैतिक इतिहास है, वह इतिहास जिसमें अंग्रेजों ने अतिरिक्त खादपानी लगाया है| उस फसल ने अस्सी में कुल्ले देना शुरू किया और अब फसल पकने लगी है|

बदलते आर्थिक राजनैतिक, कूटनैतिक और तकनीकि समीकरणों ने निश्चित ही मुस्लिमों की आर्थिक और सामाजिक आदान-प्रदान क्षमता में उनका पक्ष कमजोर किया है| उदाहरण के लिए यदि हथकरघों को विद्युतकरघों ने निवृत्त न किया होता तो क्या इस उपन्यास के लिए विषयवस्तु पैदा होती? क्या पसमांदा और पिछड़े वर्ग के मुस्लिमों के मुक़ाबले हिन्दू दलितों और पिछड़ों की स्थिति में सामाजिक और आर्थिक सुधार न आया होता तो क्या उनमें सिर उठाने और दंगा करने की हिम्मत जुट पाती? आगरा मथुरा जिले के जाट-जाटव दंगे अपनी लंबी अवधियों के बाद भी वास्तव में दंगे बने रहे रहे| यह दोनों पक्षों के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संतुलन के कारण हुआ और किसी एक पक्ष में खड़ा हो पाना किसी भी राजनीति के लिए लाभकारी न रहा| 

स्थानापन्न कर पाने की क्षमता और उस क्षमता को प्रयोग कर पाने की इच्छाशक्ति का पैदा होना किसी भी दंगे के लिए पैदल सेना तैयार करता है| दंगों को नरसंहार में बदलने के लिए रणनीति और राजनीति उसके बाद पैदा होती है|

यह उपन्यास दंगों के आर्थिक पहलू को भली भांति छूता और यथोचित विवेचना करता है| इन विवेचनाओं को बहुत खूबसूरती से कथावस्तु में पिरोया गया है| कई बार लगता है समस्त विवेचना बहुत ही “सांप्रदायिकनिरपेक्षतावादी” और दोनों पक्षों के सांप्रदायिकतावाद को हाशिये पर रख देती है| वैसे भी घृणा, आरोप-प्रत्यारोप और पुरानी रंजिशों के आलवा सांप्रदायिकतावाद के पास होता क्या है?

जहाँ इस उपन्यास में बिगड़ता हुआ सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक ढाँचा मानवीय त्रासदी के रूप में हमारे सामने खड़ा होता है वहीं इसी कथा के हाशिए पर बनते बिगड़ते पारवारिक व सामाजिक संबंध एक नए समाज की नींव रख रहे हैं| यह सब इस समाज और इस उपन्यास की उपधारा में हो रहा है| उम्मीद की जा सकती है यह उपधारा धीरे धीरे ही सही मगर समाज की मुख्यधारा बनेगी और उससे भी अधिक अपने को मुख्यधारा कहने का साहस जुटाएगी| 

यदाकदा तथ्यपूर्ण बोझिल हो जाने के कारण गंभीर पाठक के लिए इस उपन्यास की पठनीयता बढ़ी है| फुटनोट भी बिना पढ़े समझे नहीं रहा जाता| 

पुस्तक: कर्बला दर कर्बला
विधा: उपन्यास,
लेखक: गौरीनाथ
संस्कारण: दूसरा पेपरबैक, फरवरी 2022 
प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद
पृष्ठ संख्या: 256 मूल्य: 295.00
आईएसबीएन: 978-93-91925-65-9
http://www.antikaprakashan.com/index.php

माँ!!


क्या चित्र आता है आपके मन में? माँ, जिसके मुखमंडल पर ममता गंगाजल की तरह बह रही हो? क्या मुखमंडल पर प्रगट होती ममता ही मातृत्व का प्रतीक है? आपका प्रश्न यही होगा कि बिना ममत्व के कैसी माँ? मैं पूर्णतः सहमत हूँ| परन्तु माँ ममता होने की प्रथम आवश्यकता नहीं है, यह एक लक्षण है माँ हो जाने का| यह कहना भी उचित नहीं है कि जन्म देने के उपरांत ममता का प्रादुर्भाव होता है, लक्षण के रूप में ममता अत्यल्प बालिकाओं में भी प्रत्यक्ष होती है| 

प्रकृति ममता की अवधारणा के आधार पर मातृत्व की पुष्टि करने से सर्वदा इंकार करती हैं| स्वभावतः कोई भी स्त्री यशोदा होने को देवकी हो जाने के मुक़ाबले कम पसंद करती हैं| यही कारण है कि हजारों अनाथ बच्चों के इस संसार में उर्वरता चिकित्सा बहुत बड़ा व्यवसाय है|
प्रकृति में माँ होने की प्रथम और प्राकृतिक अवधारणा गर्भधारण ही है| प्रकृति में प्रसव का होना न होना, सामाजिक और चिकित्सकीय आधार पर चुनौती पा रहा है| संभव है कि गर्भधारण के लिए अपने गर्भाशय के प्रयोग को भी पूर्ण चुनौती दे दी जाये| परन्तु यह भी स्पष्ट है माँ होने के लिए गर्भधारण और प्रसव के विकल्प तो संभव हैं परन्तु विकल्प उन्हें अप्रासंगिक नहीं बनाते| 

माँ होने के लिए गर्भधारण और प्रसव को सर्व-स्वीकृति अवश्य है, परंतु है गर्भधारण की प्रक्रिया को मातृत्व के समान आदर से नहीं देखा जाता| उसे कोई गर्भधारण संस्कार नहीं कहता – इसे यौन क्रिया ही कहा जाता है| परंतु यह सिक्के के दो पहलू की तरह है| आपके किस ओर खड़े होकर सिक्के को देखना चाहते हैं| आप के मतिभ्रम से जननांग और यौनांग की वास्तविकता पर अंतर नहीं पड़ता है, लेकिन यह शब्द प्रयोग मात्र यह दिखा सकते हैं कि आप सिक्के के किस तरफ होना पसंद करते हैं|

मेरे हिन्दी शिक्षक ने एक किस्सा सुनाया कि एक नवधनाड्य ने प्याऊ पर बैठी स्त्री से ज़ोर से कहा अरी औरत पानी पिला दे| उस स्त्री ने अनसुना कर दिया और किसी विचार में मग्न रही| थोड़ी ही देर में कोई प्राध्यापक उधर और बोले माताजी यदि समय हो तो क्या आप थोड़ा पानी पिला देंगी| स्त्री ने तुरंत मटके से पानी निकाल कर पानी पिलाना शुरू कर दिया| माँ होना स्त्री होने से अलग नहीं हो सकता, परंतु आप का आचरण आपकी दृष्टि का द्योतक होता है| यह आचरण बड़े बड़े प्रतीकों से अधिक महत्वपूर्ण है| (उस समय पूंजीवाद का ज़ोर न था और पुराने पैसे वाले नए गुर्गों को खास इज्जत नहीं देते थे)

माँ के व्यापक रूप से आराध्य एक चित्र को देख रहा था जिसमें स्तन व चूषक दिखाई देते थे| तो प्रकार की टिप्पणियाँ दर्ज थीं, पहली जय माँ,  जय माता जी वाली और दूसरी, हमें माँ को इस तरह नहीं देखना चाहिए कम से पुष्पमाल से तो स्तन ढक दिये जाने चाहिए थे| यदि आप पवित्र मन बालक हैं तो यही अनावृत स्तन और चूषक आपको दुग्ध प्रदान करेंगे, आपको मूल जीवनी शक्ति प्रदान करेंगे| मुख्य बात भावना ही है| यह दर्शक का दृष्टि दोष है, जिसे आप मूर्तिकार, चित्रकार और शृंगार पर मढ़ते हैं| क्या माँ के अनावृत्त दर्शन उन्हें माँ नहीं रहने देंगे| ऐसा नहीं है| कहा जाता है कि प्रस्तुत चित्र आपकी भावना को बनाएगा या बिगड़ेगा, परंतु यदि आपकी भावना इतनी कमजोर है तो आप ध्यान क्या लगाएंगे| मेरा मानना है कि यौन भाव और मातृ भाव से बने चित्रों को उनके मूल भाव के अनुसार ही देखा जा सकता है| यदि ऐसा नहीं होता तो यह दर्शक की प्राकृतिक भावना की विकृति है| दोनों भाव आवश्यक और प्राकृतिक हैं| प्रश्न किसी एक भाव के गलत होने का नहीं है अपितु उस भाव के उचित समय पर उत्पन्न होने का है| 
* चूषक शब्द से याद आया की संस्कृत के एक गुरु जी चषकः को चषकः कहने से कतराते थे| क्यों? उसे न पूछिए|