चिकित्सा सेवा सुधार


यह लेख पिछले लेख स्वास्थ्य बीमा बनाम स्वास्थ्य सेवा की आगे की कड़ी है|

दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाएँ देना एक बेहद महंगा कार्य है| उस से भी अधिक महंगा है किसी भी बड़ी बीमारी के लिए मूलभूत ढांचा खड़ा करना| एक समय था कि सरकारें ही इस प्रकार के बड़े खर्चे वहां करने की स्तिथि में थीं| आज दुनिया भर में गरीबी कम हुई है और व्यवसायिक स्वास्थ्य दे पाना संभव हुआ है| मगर, आज भी बेहद बड़ी बीमारिओं के लिए व्यावसायिक तौर पर स्वास्थय सेवाएं दे पाना कठिन है| यह बड़े और महंगे खर्च वाले चिकित्सालय बेहद बड़े शहरों में ही उपलब्ध हो पा रहे हैं| दूसरी तरफ अच्छे अस्पतालों में इलाज कराने की चाह के चलते छोटे शहरों और गाँवों के अस्पतालों में मरीजों की कमी है| मरीजों की इस कमी के चलते अच्छे इन अस्पतालों के लिए अच्छे चिकित्सक ला पाना कठिन होता जा रहा है| इस समस्या से निपटने के लिए सरकारों को छोटे और बेहद बड़े अस्पातालों और इलाजों में निवेश करने की आवश्यकता है|

बीमा मरीज को इलाज सस्ता या मुफ्त दे सकता था, मगर इलाज नहीं दे सकता| इलाज उपलब्ध करने का काम सरकार का है, चाहे यह पूंजीवादी सरकार हो या साम्यवादी| निजी क्षेत्र को साथ लेकर चलना उचित है, परन्तु स्वास्थय सेवाओं की निजी क्षेत्र ही पर छोड़ देना उचित नहीं जान पड़ता| बीमा सम्बन्धी कोई भी सरकारी योजना आज केवल निजी चिकित्सालयों के दम पर सफल नहीं हो सकती|  उदाहरण के लिए आज तक निजी क्षेत्र एम्स जैसे एक भी संस्थान को खड़ा नहीं कर पाया है| टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल, मुंबई जैसे एक दो उदहारण को छोड़ दें तो निजी क्षेत्र का पूरा लक्ष्य स्वास्थ्य सेवाओं का व्यवसायिक दोहन तक ही सिमटा हुआ है|

मेरा सुझाव यह है कि

  • राज्य सरकारें (स्वास्थ्य राज्य का संवैधानिक विषय है) स्वास्थ्य सेवा की उपसेवा के रूप में बीमा पूल तैयार करें और उस से इक्कठा होने वाले धन से स्वास्थय सेवाए प्रदान करे|
  • हर नागरिक को इस सरकारी बीमा पूल से सरकारी और निजी चिकित्सालयों में चिकित्सा सुविधा मिले|
  • सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का पूरा मूल्य लिया जाये और चिकत्सकों को भी सरकारी बीमा पूल से व्यवसायिक सेवामूल्य दिया जाए|
  • निजी क्षेत्र को चिकित्सा अनुसन्धान जैसे क्षेत्रों में आने के लिए प्रेरित किया जाए और उसका व्यवसायिक उपयोग करने की अनुमति हो|
  • दवाओं और अन्य उत्पादों पर मूल्य नियंत्रण हो परन्तु इतना नहीं कि यह क्षेत्र लाभ का सौदा नहीं रहे|
  • चिकित्सा उत्पाद क्षेत्र में आपसी प्रतिस्पर्था को बढ़ावा दिया जाये|

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स्वास्थ्य बीमा बनाम स्वास्थ्य सेवा


बीमा, पूँजीवाद का सर्वाधिक साम्यवादी उत्पाद है| इसमें पूँजीवाद की लम्पटता और साम्यवाद की अनुत्पादकता का दुर्भाग्यपूर्ण सम्मिश्रण है|

बीमा का सीमित प्रयोग सफलता की कुंजी है| उदारहण के लिए केवल शुरूआती जीवन में लिया गया सावधि जीवन बीमा आपके परिवार को आर्थिक सुरक्षा देता है| अन्य जीवन बीमा उत्पाद बीमा कंपनी को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते हैं|

मैं जिन बीमा उत्पादों का समर्थक हूँ उनमे स्वास्थ्य बीमा शामिल है| परन्तु कबीर दास जी बीमा के बारे में ही कह गए हैं: अति का भला न चुपड़ना| यहाँ हम केवल स्वास्थ्य बीमा की बात करेंगे|

पहली बात यह है कि इस बात का ख्याल रखा जाए कि बीमार न पड़ा जाए| उस तरह न सोचा जाये जिस तरह हम दिल्लीवाले वायु प्रदूषण सम्बन्धी बीमारियों के बारे में कभी कभी सोच लेते हैं – बीमा के खर्चे पर इलाज कराएँगे| ध्यान रखें चिकित्सा, शल्य चिकित्सा और दवाओं के दुष्प्रभाव आपको ही झेलने होंगे – बीमा कंपनी को नहीं| अच्छे पर्यावरण के लिए सरकार, साम्यवाद और पूँजीवाद से लड़िये– यह बहुत बड़ा बीमा है|

दूसरी बात, स्वास्थ्य बीमा केवल इस बात का आश्वासन है कि अगर आप कोई स्वास्थ्य सेवा लेंगे तो उसका खर्च बीमा कंपनी उठाएगी| यह बात तो हम सभी जानते हैं कि अधिकतर बीमा कंपनी बड़ी और खर्चीली बीमारियों को सामान्य स्वास्थ्य बीमा से बाहर रखतीं हैं| इस बीमारियों के लिए आपको अलग से बीमा लेना होत्ता है या फिर रामभरोसे बैठना होता है| अगर फिर भी बीमारी हो जाती है तब आपकी बचत खर्च होने लगती है| बीमा चाहे निजी हो या सरकारी, इस बात का ध्यान रखें|

तीसरी बात, अगर आप दुनिया की सारी बीमारियाँ अपने बीमा में शामिल करवा भी लेते हैं तो बीमा कंपनी इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकती कि किसी बीमारी का इलाज आपके देश में या फिर इस दुनिया में कहीं भी है| इस बारे में सोचने की गंभीर आवश्यकता है|

क्या हमारे पास स्वास्थ्य सेवा का मूलभूत ढाँचा है?

मनभावन कर्जा


देश का हर बड़ा बिल्डर बर्बादी के कगार पर खड़ा है| दिवालिया कानून उसके सर पर मंडरा रहा है|

किसी भी शहर के बाहर निकल जाओ, निर्माणाधीन मकानों की भरमार है| अगर सारे मकान किसी न किसी को रहने के लिए दे दिए जाएँ तो कोई बेघर न रहे| मगर न बेघरों के पास घर हैं, इन मकानों के पास मालिक| जिनके पास मकान हैं तो कई हैं|

सरकार दायीं हो या बायीं – देश में बेघरों को सस्ते कर्जे की रोज घोषणा होती है| मगर जिन्हें घर की जरूरत है उन्हें शायद कर्ज नहीं मिलता| चलो सरकार कहती है, लो भाई जिनके पास पहले से घर हैं – वही लोग दोबारा कर्ज ले लो और एक और मकान ले लो| क्या इससे बेघरों की समस्या कम होती है| ये दो चार घर कर्जे पर खरीदने वाले लोग तो शायद किराये पर भी घर नहीं उठाते| शायद ही इनमें से किसी ने किराये की आय दिखाकर आयकर भरा हो| तो भी इतना कर्ज देते रहने से किसी लाभ?

सरकारी महाजन को – बैंक को| बैंक ने बिल्डर को मोटा कर्जे दे रखा है| बैंक को पता है, ये अपना कर्ज नहीं चुकाएगा| पुराना गुण्डा मवाली और नया नया नेता है| बड़े मेनेजर का हमप्याला यार भी है|

अब बैंक किसी ऐसे को पकड़ता हैं जो आँख का अँधा और गाँठ का पूरा हो – या कम से कम इतना भोला हो कि घर की आड़ में गधा बनकर बैंक के लिए सोलह घंटे काम कर सके| उसे उसकी जरूरत और औकात से ज्यादा का घर खरीदवा दो| बिल्डर को जो पैसा मकान के बदले देना हो बैंक उसकी एंट्री घुमाकर बिल्डर का कर्जा कम थोड़ा कम कर देता है| अब आपकी मासिक किस्त भी बनी तीस साल या और ज्यादा – मूल कम ब्याज ज्यादा| अगर आप आठ रुपया सैकड़ा भी ब्याज देंगे तो चालीस साल में बैंक को एक लाख में मूलधन पर पक्का वाला सुरक्षित ढाई लाख ब्याज आदि मिल जायेगा| अगर आप इस मकान में रहते हैं तो तो भावनात्मक लगाव आपको इस मकान को खतरे में नहीं डालने देगा या फिर आप इस से बड़ा और महंगा मकान खरीदेंगे|

इसमें सबसे बड़ा लाभ है – बिल्डर का| जो मकान मांग आपूर्ति के आधार पर वास्तव में दस लाख का नहीं बिकना चाहिए, वो पच्चीस लाख में बिकता है| उसे अपना मकान बेचने पर कोई खर्चा नहीं करना पड़ता| यह काम अक्सर बैंक करता है| बिल्डर और सारे रियल एस्टेट उद्योग तो तो इस बात की चिंता नहीं करनी कि अगर उनके मकानों की कीमतें कम हो जाएँ तो क्या होगा? इस का नुक्सान तो बैंक को भुगतना है| मकानों की कीमतें गिरने पर लोग कर्जा उतारने में दिलचस्पी कम कर देंगे| उधर बिल्डर भी मकान न बिकने का हवाला देकर कर्जा नहीं चुकायेंगे|

कुल मिला कर अपनी जरूरत के आधार पर घर खरीदें आसन कर्जे के आधार पर नहीं|