मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| क्यों हो तुम मेरे साथ – सदा, तब भी जब मैं तुम्हें चिन्हित नहीं कर पाता| सूर्योदय से पूर्व मैं तुम्हें खोजता हूँ – हर स्थान, हर कोण, हर दिशा, हर प्रतिस्थान,हर प्रतिकोण, हर प्रतिदिशा| हर एकांत मैं खोजता हूँ तुम्हें मन की ऊंचाइयों में, विचारों की गहराइयों में, तृष्णा के कूपों में, वितृष्णा के मेघदल में| यदाकदा मैं मिलता हूँ तुमसे आत्मा के गर्भगृह में अनावृत्त, सरल, सहज, स्थिर, मुझ में रमण करते हुए|
मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| कितनी अलग हो तुम मुझे से, मेरी होकर? तुम्हारी पारदर्शिता कितनी प्रभावशाली है, कितनी शुद्ध है, कितनी सरल स्वरूपा है? तुम कितनी निरंतर, निर्विकार, निर्गुण, निर्लिप्त और निश्चल हो? तब भी जब तुम सदा निर्मोही बनी रहती हो – तब जब तुम मेरे चिरंतर संग हो| तुम मेरे संग इतना निःसंग क्यों हो?
मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| अपनी छाया के साथ एकाकार हो जाना निर्विवाद सुखकर होता है| इसमें रति का विलास नहीं है, रमण का सुख है| इसमें भोग का श्रम नहीं, उत्कंठा नहीं, क्षरण नहीं, अल्पमरण नहीं, और नहीं इसमें सुखातिरेक, जीवाकांक्षा या अमरणविलास| हे छाया! तुम्हारे साथ मेरा रमण संभोग नहीं संजीवन है|
मैंमैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| कितना उदास हो तुम प्रशांत शांति की तरह? कितना सन्न हो सन्नाटे की तरह? कितनी विराट हो जाती हो तुम विरत ब्रह्म की तरह? तब जब तुम नहीं दिखती हो मुझे मेरे साथ, मैं कितना वीरान हो जाता हूँ? मैं हर पल जानता हूँ, तुम मेरे साथ हो जीवन के हर अंधेरे में, उन उजालों से कहीं अति अधिक, जब मैं तुम्हें देख पाता हूँ, जान पाता हूँ, समझ पाता हूँ|
मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| हर अंधेरी रात, हर धुंधलकी सुबह शाम, कुहासे के हर सर्द दिन, हर तपती दोपहर, मैं तुम्हें शिद्दत से महसूस करता करता हूँ| तुम्हारी उपस्थिति उस समय मेरा सहारा और ताकत होती है जब मैं तुम्हें सिर्फ और सिर्फ महसूस कर पाता हूँ| तुम्हारी उपस्थिति उस समय मेरा जीवन होती है जब तुम्हें महसूस कर पाना भी मेरे लिए निरंतर कठिनतर होता जाता है|
मैं अक्सर अपनी छाया से बातें करता हूँ| सब कुछ, कुछ भी तो नहीं हो तुम|
