एक प्रश्न मन में है: क्या हिन्दी पत्रिका निकालना और उन्हें मंगाकर पढ़ना दोनों कार्यों में गंभीरता कम सनक अधिक है?
हिन्दी में बहुत सी पत्रिकाएँ निकालतीं है, इनमें से कुछ पत्रिकाओं की सूचना मुझे है, उनमें से कुछ पत्रिका मैं मंगाता हूँ और उनमें से कुछ पढ़ भी लेता हूँ|
हिन्दी पत्रिकाओं का कमोवेश दावा हिन्दी की सेवा का है और बहुत सी पत्रिकाएँ घाटे में निकालती रहीं है और बंद भी होती रही हैं? मगर सेवा के लिए पत्रिका निकालने का दावा कितना उचित है, खासकर तब जब दो सौ प्रतियाँ छाप दी जाएँ, पचास पढ़ी जायें शेष किसी पुस्तकालय/कबाड़ख़ाने में कैद हो जायें? पत्रिका निकालने, खरीदने और पढ़ने का निर्णय पूर्णतः प्रकाशक, संपादक, क्रेता और पाठक का है, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है|

परंतु मेरा प्रश्न लगभग दूसरी दिशा में है, क्या बिना विचारे पत्रिका निकाल कर पत्रिका को पूंजीवादी बाजार के बीच मदारी की बंदरिया की तरह नाचने नहीं छोड़ दिया जा रहा? कोई देखे तो ठीक न देखे तो ठीक? गंभीर कारण हैं कि मैं जंगल में नाचे मोर से तुलना नहीं कर पा रहा हूँ|
पत्रिकाओं का प्रथम दावा रहता हैं कि हम व्यवसायिक उपक्रम नहीं हैं और न हमारा कोई व्यवसायिक प्रबंधन है| मैं सिर ठोंकता रहता हूँ| चलिये आप व्यवसायिक उपक्रम नहीं हैं, अगर सेवा का दावा करते हैं तो कम से कम सामाजिक उपक्रम तो होंगे| माना कि व्यवसायिक प्रबंधन नहीं है तो कम से कम सामान्य प्रबंधन तो होगा| कुछ नहीं तो परचून की दुकान (घरेलू उपक्रम) या मोची के तहबाजारी ठीये (निजी उपक्रम) जितना प्रबंधन तो होगा|
हिन्दी पत्रिकाओं के पास वैबसाइट न हो कोई बात नहीं, फेसबुक पेज, टिवीटर हैंडल जैसा तो कुछ हो ही सकता है कि आम पाठक को कम से कम आपके होने की सूचना तो मिल जाये| जिन पत्रिकाओं के पास इनमें से कुछ है भी तो अद्यतन जानकारी नहीं होती| इनमें से अधिकतर लोग मेरे आदरणीय है|
एक संपादक के प्रोफ़ाइल/पेज पर उनकी खुद की नई पुस्तकों की जानकारी नहीं है| एक पत्रिका के नए अंक के बारे में आम चर्चा होती है पर उसके पेज पर सब कुछ नदारद है| बहुत पहले किसी पत्रिका में एक लघुपत्रिका के बारे में कहा गया था कि उसके संपादक ही उसके एकमात्र पाठक है| मुझे लगा घटिया मज़ाक है, पर वास्तविकता भिन्न नहीं दिखाई देती|
आपकी पत्रिका कब कहाँ से मंगा सकते हैं, अगर आप अंक कम छापते हैं तो क्या मांग आने पर अधिक अंक छाप सकते हैं, शुल्क कितना है, पत्रिका किसी कारणवश न मिले तो पाठक क्या करे| प्रेषण की क्या व्यवस्था आपने की है, कुछ पता नहीं चलता| यह तो कुप्रबंधन ही हुआ| हिन्दी सेवा करें तो कम से कम पूरी तो करें|
हिन्दी पत्रिकाओं को समझना चाहिए कि पाठक को अपनी पत्रिका से दूर रखकर आप हिन्दी की हानि कर रहे हैं| आम धारणा बनती है कि हिन्दी में कचरा छ्पता है इसलिए कोई नहीं पढ़ता| जबकि आप पढ़ाना ही नहीं चाह रहे|
इस से भी बड़ी बात यह है कि जब आप शुल्क लेकर पत्रिका नहीं, भेज पाते, पाठकों और उनके पते की कोई अद्यतन सूची नहीं बना पाते, पत्रिका प्रेषित ही नहीं कर पाते, पाठक को पत्रिका नहीं मिलती, पाठक की शिकायत सुनने का आपके पास कोई प्रबंधन नहीं है तो आप ध्यान दें, आप उपभोक्ता संरक्षण कानून के मजबूत शिकंजे में हैं| यह आप का भ्रम है कि आप हिन्दी व्यवसायी नहीं हिन्दी सेवक हैं, देश के कानून को ऐसा कोई भ्रम नहीं है| यदि आप पर कोई उपभोक्ता संरक्षण कानून में मुकदमा नहीं करता तो मात्र इसलिए उसे आप दयापात्र मालूम होते हैं| आपकी पत्रिका या हिन्दी सेवा उसके लिए इतनी कम महत्वपूर्ण रह गई है वह उसे प्राप्त करने के लिए आपसे लड़ना भी नहीं चाहता|
सोचिए कभी अगर कोई रिक्शे वाला आपको गंतव्य तक न पहुंचाए या मोची समय पर आपका जूता ठीक कर कर न दे तो आप क्या करते हैं, अगर महानता का नाटक न करना हो तो कम से कम मन ही मन उसे कोसते हैं या लड़ते हैं| मगर आपका पाठक यदि आपको इस लायक भी न समझे तो आप और आपकी पत्रिका का क्या स्तर है आप समझ सकते हैं|
फिर भी यदि आप को लगता है कि आपका पाठक जाए तो आपको कोई फर्क नहीं पड़ता तो आप सोचें हिन्दी का एक भी पाठक यदि आपकी पत्रिका छोड़ देता है तो क्या हिन्दी सेवा का आपका कार्य पूरा हो रहा है|
हिन्दी सेवकों से मेरा निवेदन यह है कि पत्रिका निकालने को व्यवसायिक तरीके से ही करें, भले निजी लाभ कमाने की इच्छा न हो, यदि कोई धन लाभ हो उसे पत्रिका के प्रचार प्रसार में लगाएँ| पर कोई भी कार्य उसके तरीके से ही किया जाए| सबसे जरूरी बात उपभोक्ता संरक्षण कानून से अपने को बचा कर रखें|
नोट: उपभोक्ता संरक्षण कानून मुफ्त वितरण पर लागू नहीं होता|