लगभग बीस वर्ष पहले खुराक के अनुपात में मेरा तन- मन अचानक काफी कमजोर हो गया था| साल दो साल चक्कर काटने के बाद कुछ खाद्य पदार्थों से प्रत्यूर्जता (एलर्जी) की बात सामने आई| परहेज के साथ चिकित्सक ने मुझे अपनी ख़ुराक तुरंत आधा करने के कहा तो मुझे आश्चर्य हुआ| इतनी कमजोरी में खुराक आधी!!
मगर चिकित्सक न सिर्फ़ अपनी बात पर कायम रहे बल्कि वादा भी किया कि मैं कम खाकर अधिक तंदरुस्त हो जाऊँगा| वैसा हुआ भी| कम ख़ुराक से तन मन हल्का हुआ और तन तंदरुस्त| चिकित्सक का कहना था कि अधिक खाने से पाचन तंत्र पर अधिक दबाव था|
इस के अतिरिक्त चिकित्सक महोदय ने मुझे हफ्ते में एक किसी रोज और साल में दो नवरात्रि या किसी और हफ्ता पंद्रह दिन लम्बे सम्पूर्ण निराहार उपवास का भी आदेश दे दिया| साथ में जब मन आ जाए या क्रोध, ख़ुशी, ग़म, दिल टूटने आदि पर कम से कम आधे दिन का उपवास भी नत्थी कर दिया| कर्मकाण्डी लोगों को मेरा उपवास खलता रहा, एक तो मैं कोई पूजा आदि नहीं करता था और यह उपवास भी एक मुस्लिम चिकित्सक ने बताए थे| पर बहुत लाभ रहा| कर्मकाण्डी नियम बड़े अजीब होते हैं जैसे एक विशेष दिन उपवास में केवल मीठा खाते हैं तो दूसरे विशेष दिन पीला, किसी में दिन निकलने से पहले तो किसी में दिन ढलने के बाद; सो कर्मकाण्डी समाज में तन-हित उपवास बड़ा कठिन है| पर स्वास्थ्य लाभ कर्मकांडों से बच-बचा कर लूटा गया|
इस दौरान मुझे दो बातें सीखने को मिली: अल्प आहार और आस्वाद|
अल्प-आहार
अल्प-आहार का लाभ तो ऊपर दिया ही है: पचने में सरलता, तन मन हल्का| परन्तु इसका अर्थ मेरे लिए कभी यह नहीं रहा कि चाट-पकौड़ी न खाई जाए| मात्र इतना कि मात्रा अल्प रहे| जब भी स्वादेन्द्रिय ने जोर मारा, पेट ने कष्ट उठाया| परन्तु नियम में रहकर पेट के पुराने मरीज को तरह तरह के भोजन, चाट-पकौड़ी, पूड़ी- कचौड़ी, भारतीय विदेशी सभी भोजन का स्वाद लाभ मिला| एक नियम और बना किसी भी खाद्य में न ऊपर ने नमक पड़े न मिर्च न चीनी| जिन पदार्थों से प्रत्यूर्जता (एलर्जी) हैं उनका भी सीमित पर पूरे आस्वादन के साथ स्वाद-लाभ लिया गया|
हाल में मैंने पुनः भोजन की मात्रा कम की है| मेरा अनुभव कहता है कि अधिक देर बैठे रहने और शरीर को कम ऊर्जा की आवश्यकता को देखते हुए भोजन कम करना उचित है| क्योंकि पाचन तंत्र पहले से बेहतर है तो भोजन से रस-तत्त्व भी अधिक ले पा रहा है| मेरे उन चिकित्सक ने के बहुत बढ़िया बात कही थी कि अगर हमारा पेट भोजन को मल में बदलने के यंत्र की जगह भोजन को रस-तत्त्व में बदलने का तंत्र बना रहे तो न सिर्फ यह अपने लिए बल्कि पूरी मानवता की भोजन आवश्यकता के लिए बेहतर है| काश में उन चिकित्सक का नाम याद रख पाता!
आस्वाद
आस्वादी होने को लेकर सबसे पहले मैंने विनोबा भावे का कोई लेख पढ़ा था| बाद में जब काम खाने के लिए कहा गया तो मुख, और जीभ का हृदय नहीं भरता था तो चिकित्सकीय सलाह यह रही कि भोजन को और अधिक देर तक मुँह में रोक कर चबाया जाए और अधिक देर तक स्वाद लिया| मेरे लिए यह बहुत कठिन सलाह रही है| लगभग बीस साल में मुझे चालीस प्रतिशत से अधिक सफलता नहीं मिली| अधिकांशतः हम भोजन एक प्रकार करते हैं कि किसी जल्दी में हैं या फिर कुछ देखने पढ़ने या मेल-मुलाक़ात आदि अन्य कार्य के साथ उप-कार्य के रूप में भोजन करते हैं | फिलहाल इस से मुक्ति पाई है| भोजन का आस्वादन करना पाने होने आप में ध्यान योग जैसा महत्वपूर्ण कार्य है| इसी लिए भोजन भजन एकांत की बात कही गई होगी|
आस्वादन का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू जिसमें मुझे सफलता मिली, वह है स्वाद वैविध्य| शाकाहार में मुझे प्रकार प्रकार के स्वाद लेने का अवसर ही नहीं बल्कि सलीका मिला| अधिकांश लोग अपने घर के पुरातन स्वाद से बंधे रहते हैं या बाजार के तीखे स्वाद के लिए भागते हैं पर होता यह है कि मुग़लई स्वाद को पंजाबी या गुजरती या बंगाली या मद्रासी स्वाद अधिक नहीं भाता| भारतीय लोग चीनी भोजन से लेकर कॉन्टिनेंटल तक में मसाले डालते हैं तो उत्तर भारतीय सांभर और रसम में सरसों तेल वाला उत्तर भारतीय तड़का रहता है| भोजन के आस्वादन का एक बड़ा पहलू है हर भोजन का उसके मूल स्वाद में आस्वादन करना| इसकी घर से बाहर निलकने के बाद खुद पकाने के समय आस्वादन में बेहतरीन हुई| एक तो किसी खाद्य में नमक मिर्च मीठा ऊपर से न डालने का मेरा नियम था दूसरा कभी सब्ज़ी हल्की तली हलकी उबली बनती तो कभी अतिरिक्त भुनी हुई| हमने इसके लिए शब्द ईजाद लिए| अर्ध- मसाला बैगन भरता, अति मसाला बैगन भरता, दुहरा तड़का दाल, अल्प-पक्व रोटी, अतिरिक्त भुनी रोटी आदि| वह स्वाद खुद ही आने लगा| मैं यह नहीं कहता कि आप खाना बेतरतीब बनायें पर मैंने यह अनुभव किया कि किन्ही दो पड़ौसी घरों में बैगन भरते के मसाले से लेकर तलने भुनने में कोई पूर्ण साम्य नहीं है तो इन्हे दो भिन्न स्वाद मानकर समझकर क्यों न इनका आस्वादन किया जाए ? बेहतर भोजन बनाएं और बेहतर स्वाद ले-लेकर खाएं|