समाज बिचौलियों के विरुद्ध क्यों है| इसके ऐतिहासिक कारण है| पहले समय में बिचौलिए का काम गाँव या शहर में एक दो लोग करते थे और उनके बीच कोई प्रतियोगिता न थी| एकछत्र व्यापार का ऊँचा लाभ था| कुछ हद तक इस तरह देखिए- हस्तशिल्पी अपना शिल्प एक हजार में बिचौलिए को देता है जो बड़े ब्रांड दो हजार में लेकर दस हजार में उपभोक्ता को देते हैं| सब इस “लूट” को जानते हैं परन्तु क्योंकि इन मामलों में उपभोक्ता बड़ा व्यक्ति है तो वह समय और वितरण तंत्र के खर्च और आवश्यकता समझते हुए मांगी गई कीमत दे देता है| इन मामलों में बिचौलिया अपने ब्रांड और दुकान की चमक भी जोड़ देता है तो उपभोक्ता थोड़ा खुश भी रहता है|
परन्तु यदि यह मामला नमक का हो तो उत्पादक से दस पैसे का नमक लेकर गाँव तक पहुँचते पहुँचते जब दस बीस रूपये का हो जाता है| यह खलता है| खासकर तब, जब बिचौलिए ने कोई अतिरिक्त सुविधा न जोड़ी हो जैसे – नमक पीसना, उसमें न जमने देने वाले रसायन मिलाना, पैकिंग करना, या अपनी ब्रांड वैल्यू जोड़ना| बल्कि बोरीबंद दानेदार नमक तो घर लाकर धोना भी पड़ता था| अगर गाँव के विक्रेता के पास अवसर हो और प्रतियोगिता न हो तो वह इसके चालीस रुपए भी वसूल सकता है|
भारत बिचौलियों का इतिहास पहले भी खराब रहा है| वितरण तंत्र वैश्य समुदाय के रूप में आदर पाता रहा, परन्तु उत्पादक और सेवा प्रदाता शूद्र कहलाते रह गए| अरब और अंग्रेज भी वितरण तंत्र को परिष्कृत करते करते शासक बन बैठे| व्यापार यानि वितरण यानि बिचौलिया आज भी स्थानीय से लेकर वैश्विक व्यापार का केंद्र है|
बिचौलिया विरोधी यह अनुभव भावना के रूप में आज भी कायम है| उदहारण के लिए दवाओं के मामले में सब जानते हैं कि दस पैसे मूल लागत की दवा उपभोक्ता को दस रूपये से लेकर सौ रूपये तक मिलती है| गाँव से एक रुपये किलो में चलने वाली सब्ज़ी शहर में उपभोक्ता को चालीस रुपए से अस्सी रुपये में पड़ती है| हम यह भी नहीं समझते कि बिचौलिया वितरण तंत्र का आवश्यक अंग है| हम वितरण तंत्र के खर्च नहीं देख पाते पर मुनाफ़े को देखते और चिड़ते हैं| जैसा मैंने पिछली पोस्ट में लिखा था, बड़ी कंपनियां अपने लाभ के लिए इस वितरण तंत्र को आत्मसात कर रही हैं और बिचौलिया विरोधी हमारी भावना का अस्त्र के रूप में प्रयोग कर रही हैं|
साथ में मानसिकता की भी बात है| जिन उत्पादों पर मूल्य लिखा हो हम उन्हें ऊँचे दाम पर सरलता से खरीद लेते हैं ख़ासकर ऐसे उत्पादकों का उत्पाद जिसका अच्छा प्रचार किया गया हो| क्योंकि हमें लगता है कि हम सीधे उत्पादक से खरीद रहे हैं| जब भी वितरण तंत्र हमें उत्पादक के साथ जुड़ा हुआ दिखता है तो हम सरलता से उत्पाद महंगे दाम पर खरीद लेते हैं|