दीवारों के कान होते हैं| जो कुछ नहीं सुनना चाहिए, सब सुन लेतीं हैं| दीवारों के चार छः मुँह भी होते हैं, जो कुछ सुन लेतीं हैं, गा गाकर दुनियाँ को सुना देतीं हैं| दुनियाँ दीवारों के कानों सुनीं बातें खूब सुनती है|
मगर यह दुनियाँ तो बहरी है| कौन किसी की सुनता हैं यहाँ? न मैं न तुम – कोई नहीं| सारी दुनियाँ अकेली और उदास है| कौन यहाँ किसी का दुःख बाँटने बैठा है? कोई किसी का कन्धा थपथपाने वाला नहीं, कोई गले लगाने वाला नहीं, कोई पीठ पर हाथ रखने वाला नहीं| दुनियाँ हजार हजार कोठरियों का बंद पिंजड़ा है| इन सभी कोठरियों को हवा की जरूरत है| खुलनी चाहिए कई खिड़कियाँ दस दिशाओं में| कुछ खुले आसमान कुछ तारों भरी रात कुछ हरे मैदान कुछ झम-झमझमाती हुई बारिश|
वक़्त के पीछे भागती इस दुनियाँ में कोई इंसान नहीं रहता छोटी छोटी कोठरियाँ रहतीं हैं| बंद डिब्बे – जो शायद ही कभी खुलते हैं – कहते हैं तो झरोके की तरह हवा की किसी हल्के फुल्के झोंके से| खुलने से डरने वाले डिब्बे – खुली और तेज हवा में चटकनियाँ चढ़ा लेते हैं|
बस, मेट्रो, ट्रेन, हवाई जहाज, स्टेडियम, और सारी दिल्ली में होने वाले तमाम समारोह खुली हवा लेकर आते हैं और हमें बुलाते हैं| मगर क्या वहाँ इंसान जाते हैं?
यूँ ही टैक्सी में बैठे बैठे मैंने कान पर फुसफुसिया लगाये गाने सुन रहा था| चालक ने अचानक पूछा, आप भी श्रीमान बंद डिब्बा निकले| सुनाई तो नहीं दिया – महसूस हुआ – उसने कुछ कहा है| धीरे से कान से फुसफुसिया हटाया और सड़क की तरफ देखने लगा| चालक ने फिर पूछा, झिरी से झाँक रहे हैं? मुस्कुरा दिया| लगा हवा का कोई हल्का सा झोंका है| चलो, अपनी जिन्दगी के इस बंद डिब्बे का एक छोटा सा झरोका खोल लिया जाए| यूँ ही कुछ यूँ ही सी बातचीत शुरू हुई| गाड़ी और बातचीत चलती रही – चालीस किलोमीटर|
कई बार सोचता हूँ – फ़िल्में, गाने, किताबें, क्या हैं ये सब? जब सारी दुनियाँ बाहें फैलाये खड़ी हो अपने कान क्यों बंद कर लेता हूँ मैं? दुनियाँ का दरवाज़ा खोलने की चाबी खुद अपने कान में लगानी होती है|
दुनियाँ आँख से नहीं कान से देखी जाती हैं, आँख सिर्फ़ यह बतातीं हैं कि देखना कब और कहाँ है?
मैं अक्सर टैक्सी में होता हूँ तो एक छोटी दुनिया बना लेता हूँ, जिसमे मेरा और चालक का सारा जहाँ थोड़ी देर के लिए सिमट आता है|