प्रदूषण की मारी दिल्ली से बाहर निकलते समय आपके फेफड़े ख़ुशी से चीख चीख कर आपको धन्यवाद करने लगते हैं| कान आसपास आँख फाड़कर देखने लगते हैं – क्या जगह है कि सन्नाटे में शांति है? आँख हवा को सूंघने लगती है – क्या हुआ हवा को कि जलन नहीं हो रही? आती हुई उबास बंद होते ही नाक खुलकर जीने लगती है| त्वचा फिर एक बार साँस लेने लगती है| शहर बदलते ही स्वाद तो खैर बदल ही जाता है|
उत्तर भारत में नीला असमान देखना जीते जी स्वर्ग देखने का साकार सपना लगता है| दिल्ली को फर्क नहीं पड़ता| किसने पीछे पांच साल में ध्रुवतारा देखा? किसने पिछले बीस साल में रात के सन्नाटे में झींगुर का गान सुना? कौन धरती की सौंध को दो रात सूंघ पाया? हर कोई धीमी मर रहा है – खुद अपनी चुनी हुई हत्या – आत्महत्या नहीं कहूँगा| आत्महत्या में कम से कम दुस्साहस तो लगता है| हमारी मौत एक नाकारा मौत है| दिल्ली वाली मौत उधार का (की नहीं) वैश्या है जिसे हम सब बाप का माल समझकर भोगना चाहते हैं|
धर्म के नाम पर पांच – ग्यारह – इक्कीस दीपक नहीं जलाते – हर दिवाली हम पटाखे फोड़कर अपने धर्म से ज्यादा अपना गुरूर बचाते हैं| बात किसी धर्म की नहीं है हमारे गुरूर की है- हठधर्मिता की है| हमारी दलील हैं, हम क्या सब कूंए में कूद रहे हैं? मुझे मत रोको|
किसान को दोष देना अच्छा लगता है न| मान लिया किसान दोषी है – मगर साल के दो महीन के लिए न| बाकि दस महीने के लिए एक बार अपनी आत्मा को ज़बाव तो दे कर तो देखो| मन और आत्मा का सम-विषम तो करो| दस महीने का दोष किसे दें – पाकिस्तान को, चीन को या अमेरिका को|
हमें अपनी आँख में धूल झोंकना अच्छा लगता है| सम-विषम अनुलोम-वियोम करेंगे| घर के अन्दर जो कार्बन मोनो ऑक्साइड रोज पैदा होता है – सोचा कभी? सीशा (लेड) वाला पुताई करवाई है दीवार पर कभी देखा कि बच्चे के पेट में और फैफड़ों में कब चला गया? दिन भर कान घौंस कर रखी गई गानों की आवाज कब दिमाग में ध्वनि-प्रदूषण कर गई – पूछा? दूध, दूध-मिठाई पीते वक़्त कभी सोचा कि आपको और आपके बच्चे को नकली दूध का वीडियो क्यों देखना पड़ता है? आप ने रेस्टोरंट में कभी बोला भैया ये वाले चार प्रदूषक मेरे खाने में मत डालना – कम स्वाद के लिए नहीं लडूंगा?
आइए सरकार को दोष दें| आइए किसान को दोष दें| बावर्ची को दोष दें| पड़ौसी को दोष दें|
नोट: इस बार दिल्ली से त्रिवेंद्रम आते समय सोचा नहीं था कि मैं दोनों शहरों में कोई तुलना करूंगा मगर…