मेरी बेवफ़ा ने मुझे छोड़ा न था, दिल तोड़ा न था|
मेरी जिन्दगी से रूह निकाली न थी|
मेरी जिन्दगी में न जलजले आये, न सूखी आँखों में सैलाब, न बिवाई फटे पाँवों तले धरती फटी|
जिन्दगी यूँ ही सी घिसटती सी थी, नीरस, बंजर, लम्बी ख़ुश्क सड़क बिना मंज़िल चलती चली जाती हो|
उस के बिना कल दो हजार एक सौ सतासीवीं यूं ही सी उदास शाम थी|
कहवाखाने के उस दूर धुंधले कोने में उसका शौहर कड़वे घूँट पीता था|
काँगड़ा की उस कड़क चाय की चुस्की के आख़िरी घूँट पर ख़याल आया|
इश्क़ मेरे दिल से रिस रिस के तेरे हुज़ूर में सज़दे करता है, मिरे महबूब!
मेरे माशूक किस कहर से बचाया था तूने मुझे|