दीप, दीपक, दिया, दीवले!!
मेरे बचपन के सबसे पुराने शौक में शुमार है, दिवाली के दीवले इकट्ठे करना| रात की रौनक दीवले, दिन में रंग रूप बदल लेते थे| उस समय हमारे यहाँ बिजली की लड़ियों का उस तरह चलन नहीं था जैसा आज है| मोमबत्तियां जरूर जलाई जाती थीं मगर दीवले बहुत जरूरी थे, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से ही नहीं हम बच्चों का मन रखने के लिए भी|
दीवाली की रात सब दीवलों में बराबर मात्रा में तेल भरना और फिर इस तरह घर और घर के बाहर सजाना कि प्रकाश भी दे और कोई एक तिलिस्म पैदा करें कि मन को मोह लें| फिर थोड़े पटाखे फोड़ें| उन दिनों आज की तरह दीवाली की रात मच्छर घर में नहीं भरा करते थे, दीवलों के चारों तरफ मंडरा कर मर जाया करते थे|
दिवाली के अगले दिन मोहल्ले के सारे बच्चे जल्दी जगते, सबको न केवल अपने बल्कि आज पड़ोस के घरों से भी दीवले इकट्ठे करने होते थे|
अब आता असली मजा| आप साबित दीवलों को नाव बना कर बाल्टी में तैरा सकते थे तो दो दीवलों में तीन छेद कर कर तराजू बना सकते थे| एक दीवले के टुकड़े आपके लिए बाट बन सकते थे| दीवलों का टेलीफोन उन दिनों उतना ही पसंद आता था जितना आज स्मार्टफोन| दीवलों से आप नाप जोख कर कर अनाज की ढेरियाँ बना सकते थे और गणित के नाप तौल वाले सवाल कब आपके दिल दिमाग में उतर जाते, पता भी नहीं लगता|
अगर जाड़ों या गर्मियों की छुट्टियों तक दीवले बच जाए तो एक नया खेल खेला जाता| दीवलों पर रंग रोगन किया जाता, कुछ न कुछ फूल पत्त्तियाँ बनाई जातीं| ये बेल बूटे कुछ कुछ लोक कला जैसी दिखाई देते| जो दीवले अच्छे सज जाते उनका माँ मोमबत्तीदान बना लेतीं, वो घर की बैठक में रख दिया जाता| बाकी बेल बूटे वाले दीवले घर और मोहल्ले के बच्चों में बंट जाते|
वो रंग – बिरंगे दीवले अब नहीं होते, दीवाली का दिवाला निकल चुका है, और वो शानदार रंगीन शौक बड़ी बड़ी रंगीनियों में उदास हैं|
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