बुढ़ापा एप्स


यह पोस्ट लिखते समय मुझे इस बारे में बताने में यह रूचि नहीं है कि 24 जनवरी को ओबेरॉय होटल में नोकिया इंडीब्लोगर्स मीट के दौरान हमने क्या हो – हल्ला किया| मेरा घर इस होटल से बहुत दूर नहीं है और मैं पैदल ही लौट रहा था| घर के पास ही काफी वरिष्ठ जोड़ा दिखाई दिया| उनकी आपसी बातचीत और चिंता सुनकर मैंने उनसे बातचीत की|

कहीं से भी लौटते में देर हो जाती है लो डर लगता है; डरतें हैं कि दुनियां से ही न लौट जाएँ| पहले तो रास्ते में कुछ हो जाये तो किस को खबर दें; पता नहीं खबर देने लायक भी रहेंगे या नहीं| बेटी कनाडा में और बेटा बंगलौर में|

रात को घर में घुसते समय बाहर लाइट्स जलाने के लिए भी दिक्कत होती है| मोबाइल को रौशनी से देख कर ही ताला खोलते हैं| फिर कई बार अँधेरे घर में घुसते में भी डर लगता है|

लाइट्स जली हुई भी छोड़कर नहीं जा सकते| पड़ोसी क्या, चोर उचक्कों को भी पता चल जाता है कि घर खाली है| हाँ! दो दिन लाइट्स न जलें तो भी पता चाल जाता है| ऐसा रिमोट भी तो नहीं है कि बंगलोर में बैठ कर दिल्ली में लाइट्स जल जाएँ, बंद हो जाएँ| मजाक मत करो मोबाइल या ऍसऍमऍस से कैसे लाइट्स जल सकतीं हैं|

अच्छा तो हमारी दवा खाने का टाइम भी मोबाइल याद दिला सकता है क्या? हाँ! एक बार तो फीड करने का काम तुम जैसे किसी बच्चे से करा ही लेंगे, बेटा|

कितना अच्छा हो जाएँ अगर हमारा मोबाइल सड़क पर चलते समय रास्ते के कंकड़ पत्थर गड्ढे पानी सबका भी बताता चले| और सड़क पार करना, तो बस भूल ही जाओ बेटा| बुढ़ापे में हमें तो कम ही दिखता है, मगर बाकी लोग तो बस| सबको जल्दी है अपने काम की|

मोबाइल पर तो नंबर दबाने में भी हाथ को संभाल कर चलाना पड़ता है| वर्ना लिखते हैं बीटा, लिख जाता है नेता| ये सब तुम जो सपना दिखा रहे हो वो किसी काम का नहीं है, अगर हमारे काँपते हाथ और टूटी आवाज पर ही सब कुछ नहीं हो पाया तो| ये मोबाइल कुछ भी करने से पहले एक बार पूछ तो लेगा न बेटा?

बुढ़ापा बीमारी है या नहीं बेटा; मगर कोई सुध नहीं लेता हमारी; यह दुःख जरूर हमें बीमार बना देता हैं| खैर तुम्हारा भला करे| बातें तो तुम अच्छी कर लेते हो|

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